सुमति जिनेसर! जग-परमेसर,
हुं खिजमत कारक तुज किंकर
रात दिवस लीनो तुम ध्याने,
दिन अति वाहु प्रभु गुणगाने
साहिबा ! मुज दरशन दीजे,
जीवना ! मन महेर करीजे साहिबा.. (१)
जगत हितकर अंतरजामी,
प्राण थकी अधिको मुज स्वामी
प्राण ! भम्यो बहु भव भव मांही,
प्रभु सेवा ईण भव विण नाही
साहिबा… (र)
ईण भवमां पण आज तुं दीठो,
तिण कारण तुं प्राणथी मीठो
प्राण थकी जे अधिको प्यारो,
ते उपर सहु तन धन ओवारो
साहिबा… (३)
अज्ञानी अज्ञानी संधाते,
एहवी प्रीत करे छे घाते
देखो दीपक काज पतंग,
प्राण तजे होमी निज गाते
साहिबा… (४)
ज्ञान सहित प्रभु ज्ञानी साथे,
तेहवी प्रीत चडे जो हाथे
तो पूरण थाये मन आश,
दानविजय करे ए अरदास
साहिबा… (५)
रचयिता: श्री दान विजयजी महाराज
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