भगवान ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव

 

भगवान ऋषभदेव इसी युग के अंतिम कुलकर श्री नाभिराजा व मरुदेवी माता के सुपुत्र थे। भगवान

ऋषभदेव का बाल्यकाल यौगलिक सभ्यता में गुजरा। कालचक्र बदलने के कारण प्रकृति का वैभव धीरे-धीरे क्षीण होने लगा और जो कल्प वृक्ष थे वे भी फल-फूल कम देने लगे। इधर कल्पवृक्षों का उपयोग करने वाली

जनसंख्या में वृद्धि हो रही थी। साधनों की कमी होने से लड़ाई झगड़े होने लगे। शांत युगलिकों के मन में संग्रह

बुद्धि पैदा हो गई। भविष्य की चिंता ने सन्तोषवृत्ति व उदारता कम कर दी। निष्क्रिय भोग भूमि से सक्रिय

कर्मभूमि के आरम्भ का यह काल था।

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राज्य का संचालन-

नाभिराजा ने जन नेतृत्व का भार अपने सुयोग्य पुत्र ऋषभ को सौंप दिया। ऋषभजी ने जनता का नेतृत्व बड़ी कुशलता व योग्यता से किया। मानव जाति के प्रति आपके मन में करूणा थी। आपने जीवनोपयोगी

साधनों के उत्पादन और संरक्षण का सब प्रकार से क्रियात्मक उपदेश दिया। वृक्ष को सींचने की, नये वृक्ष लगाने की, अन्न पकाने की, व्यापार करने की, पात्र बनाने की, वस्त्र बनाने की, रोग चिकित्सा की, संतान के पालन

पोषण आदि की सब पद्धतियाँ बताईं। गाँव कैसे बसायें, नगरों का निर्माण कैसे करें, गर्मी-सर्दी व वर्षा से बचने

के लिये घर कैसे बनायें, ये सारी बातें जनता को सिखाईं। राजा ऋषभदेव के नेतृत्व में सबसे पहली नगरी बसाई जिसका नाम 'विनीता' रखा गया। यही आगे चलकर अयोध्या के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

 

ऋषभदेव ने मनुष्यों को असहाय व प्रकृति पर निर्भर रहने के बदले पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाया। प्रकृति को नियन्त्रण में रखकर उससे मनचाहा काम लेना सिखाया। आपने स्त्रियों को चौसठ कलाएँ व पुरुषों को बहत्तर कलाएँ भिन्न-भिन्न रूप से सिखलाईं। आप इस युग के प्रथम आदि पुरुष व शिक्षाशास्त्री थे।

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ऋषभ का विवाह-

आपके समय विवाह की पद्धति नहीं थी। श्री नाभिराजा व देवराज इन्द्र के परामर्श से सर्वप्रथम आपका

विवाह सुमंगला व सुनंदा नाम की कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। भारतवर्ष में इस युग का यह प्रथम विवाह

था। सुमंगला के परम प्रतापी पुत्र भरत हुए। वे भी पिता की ही तरह बड़े ही प्रतिभाशाली और सुयोग्य थे।

 वे इस वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए।दूसरी रानी सुनंदा के पुत्र बाहुबली हुए। वे भी अपने युग के महान् शूरवीर नेता थे। इनका शारीरिक बल अद्वितीय था। इसके अलावा ऋषभदेव के 98 पुत्र और भी थे। उनके दो पुत्रियाँ ब्राह्मी व सुन्दरी भी थीं।

 

स्त्री शिक्षा-

ब्राह्मी सुमंगला की पुत्री थी तो सुन्दरी सुनंदा की। दोनों ही बहनों का आपस में बहुत प्रेम था। वे बहुत चतुर व

बुद्धिमती कन्याएँ थी। ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को उच्च कोटि का शिक्षण दिया। ब्राह्मी को लिपी अर्थात्

अक्षरज्ञान, व्याकरण, छंद, न्याय, काव्य, अलंकार आदि का ज्ञान दिया व सुन्दरी को गणित विद्या का ज्ञान दिया।

आपने सर्वप्रथम अपनी पुत्रियों को शिक्षित बनाया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋषभदेव स्त्री शिक्षा को

आवश्यक समझते थे। पुत्र व पुत्रियों पर उनका एकसा प्रेम था।

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वर्ण व्यवस्था-

आपने कर्म के आधार पर वर्णों की व्यवस्था की। जो लोग अधिक शूरवीर थे, शस्त्र चलाने में कुशल थे, संकट काल में प्रजा की रक्षा कर सकते थे और अपराधियों को दण्ड द्वारा शिक्षा देकर कुशल नागरिक बना सकते थे, उन्हें क्षत्रिय पद दिया। जो व्यापार-व्यवसाय तथा कृषि और पशुपालन आदि में निपुण थे, वे वैश्य कहलाये। जिन्हें सेवा का कार्य सौंपा वे शुद्र कहलाये।

 

चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना आपके सुपुत्र भरत ने अपने चक्रवर्ती काल में की। जो लोग अपना जीवन ज्ञानाभ्यास में लगाते, प्रजा को शिक्षा देते व समय-समय पर सन्मार्ग का उपदेश करते, वे ब्राह्मण कहलाये।

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संयम स्वीकार-

ऋषभदेव का हृदय प्रारम्भ से ही वैराग्य से परिपूर्ण था। परन्तु वे जन-जन के कल्याण की भावना से

संसार में रह रहे थे। मानव जाति को सुव्यवस्थित कर राज्य का भार अपने दोनों सुयोग्य पुत्र भरत व बाहुबली

को सौंपकर आपने मुनि दीक्षा अंगीकार की। आपके साथ चार हजार अन्य पुरुषों ने भी दीक्षा ली। दीक्षा लेने के पश्चात् आप एकान्त-निर्जन व सूने वनों में ध्यान लगाकर खड़े रहते। उन दिनों में अखण्ड मौन रखते, किसी से बोलते भी नहीं थे। अतः अन्य साधकों को भिक्षावृत्ति का ज्ञान नहीं हो पाया। भगवान ने एक वर्ष तक आहार नहीं किया। वे अपनी साधना में लीन थे, अतः इन्हें पता नहीं चला कि क्या करें और क्या न करें। कैसे

साधु धर्म पालें? आखिर भूख-प्यास, सर्दी आदि से घबराकर ये सब जंगल में कुटिया बनाकर रहने लगे।

कंद-मूल तथा वन-फल खाकर गुजारा करने लगे। भारतवर्ष में विभिन्न धर्मों एवं मतों का इतिहास यहीं से प्रारम्भ हुआ। तीन सौ तिरेसठ मत उसी समय से बने।

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निर्दोष आहार ग्रहण-

भगवान् ऋषभदेव ने बारह महीने तक निरन्तर निराहार रहकर संयम की साधना की। भयंकर से भयंकर कष्टों को प्रसन्नचित्त से समभावपूर्वक सहन किया। बारह महीने पश्चात् भगवान् का ध्यान अन्य साधकों पर गया कि अहो! मैं तो निराहार रह सकता हूँ पर मेरा अनुकरण करने वाले अन्य साधकों का क्या होगा?

अतः अन्य साधकों के मार्ग-प्रदर्शन हेतु मुझे आहार लेना चाहिये। अस्तु, आहार के लिये नगर में प्रवेश किया।

लोग आहार दान की विधि से परिचित नहीं थे अतः भगवान् को निर्दोष आहार नहीं मिला। अन्ततोगत्वा

हस्तिनापुर के राजकुमार श्रेयांस को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और ईख के रस के रूप में भगवान को उन्होंने

आहार बहराया। यह संसार-त्यागी मुनियों को आहार-लाभ का प्रथम दिन था- वैशाख शुक्ला तृतीया। जिसे अक्षय तृतीया के रूप में आज भी त्याग-तप के रूप में मनाया जाता है।

 

केवलज्ञान-

भगवान् ऋषभदेव नाना प्रकार से उग्र तपश्चरण करते हुए आत्मसाधना में लीन रहे। चारों घनघाती कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया। पश्चात् धर्म का उपदेश दिया और चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना की। भगवान् के प्रथम गणधर चक्रवर्ती भरत के सुपुत्र ऋषभसेन हुए। सबसे प्रमुख आर्यिकाएँ दोनों पुत्रियाँ ब्राह्मी जी तथा सुन्दरी जी हुई।

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निर्वाण-

अन्त में भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर जाकर छह दिन की तपस्या करके, दस हजार साधुओं

के साथ माघकृष्णा त्रयोदशी को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।

भगवान् ऋषभदेव जैन धर्म की ही नहीं विश्व की विभूति थे। वैदिक धर्म ने भी उन्हें अपना अवतार माना। भगवान् ऋषभदेव को श्रीमद् भागवत में साक्षात् ईश्वर कहा है। ऋग्वेद, विष्णुपुराण,अग्निपुराण, भागवत पुराण आदि वैदिक साहित्य में भी उनका गुण-कीर्तन आदर के साथ किया गया है।

 

च्यवन कल्याणक- श्रावण कृष्णा चतुर्थी।

जन्म कल्याणक- फागण कृष्णा अष्टमी। ।

दीक्षा कल्याणक -फागण कृष्णा अष्टमी।

केवलज्ञान कल्याणक- महा कृष्णा एकादशी।

निर्वाण कल्याणक- पोष कृष्णा त्रयोदशी।

 

कल्याणक तीर्थंकरों के ही होते हैं, क्योंकि इनका च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण स्व-पर के लिए कल्याणकारी होते हैं।

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शिक्षाएँ-

1. कर्तव्य पालन में दृढ़ता रखनी चाहिए।

2. पुरुषों के समान स्त्री जाति को भी सम्मान देते हुए उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए।

3. किसी भी कार्य में अन्तराय आने पर दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए।

4. विघ्न-बाधाओं को समता भाव से सहन करना चाहिए।

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