अवसर्पिणी के आरों की विशेषता बताओ ?


*🍂उ. 1) सुषम सुषमा- यह आरा 4 कोडाकोडी सागरोपम का आरा होता है। मनुष्यों का आयुष्य तीन पल्योपम का होता है और अवगाहना तीन कोस की होती है। मातापिता का आयुष्य जब छह मास का शेष रहता है तब एक युगल (बालक-बालिका) का जन्म होता है, वे युगलिक कहलाते हैं। माता-पिता उनका 49 दिन तक पालन पोषण करते हैं। जब वे युवा हो जाते हैं तब पति-पत्नी का व्यवहार करने लगते हैं। मरकर देवलोक में जाते हैं। इस आरे में असि-मसि-कृषि का कार्य नहीं होता है। कल्प-वृक्षों से सामग्री प्राप्त करते हैं। तीन-तीन दिन के अन्तराल में तुअर दाने के प्रमाण में आहार ग्रहण करते हैं। इस आरे में सुख ही सुख होने-इसे सुषम-सुषमा कहा जाता है। इस आरे के मनुष्यों में पहला संघयण और पहला संस्थान होता है।* 

*🍂2) सुषम- इस आरे में पहले आरे की अपेक्षा सुख कम होता है पर दुःख का पूर्णतया अभाव होता है। अवगाहना दो कोस की, आयुष्य दो पल्योपम का होता है। यह आरा तीन कोडाकोडी सागरोपम का होता है। माता-पिता युगलिकों का पालन पोषण 64 दिन तक करते हैं। दो दिन के अन्तर में बोर के प्रमाण में आहार ग्रहण करते है। शेष बातें प्रथम आरे के समान होती है।*

*🍂3) सुषम दुषम- इस आरे में दुःख होता है पर उसकी अपेक्षा सुख ज्यादा होता है। यह आरा दो कोडाकोडी सागरोपम का होता है l इस आरे के तीन भाग होते है। प्रथम दो भागों में उत्पन्न हुए युगलिकों की अवगाहना एक कोस की, आयुष्य एक पल्योपमका होता है l माता पिता 79 दिनों तक युगलिक पुत्र-पुत्री का पालन-पोषण करते हैं। एक दिन के अन्तर में आंवले के प्रमाण में आहार करते हैं l इसके तीसरे भाग में छह संघयण और छह संस्थान होते हैं lअवगाहना एक हजार धनुष से कम होती है। जघन्य आयुष्य संख्यात वर्ष का और उत्कृष्ट आयुष्य असंख्यात वर्ष का होता है। इस आरे में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती होते हैं l जीव तीसरे भाग में स्वृकत कर्मों के अनुसार चारों गतियों में जाते हैं एवं कर्मक्षय कर मोक्ष में भी जाते हैं।*

 *🍂4) दुषम सुषम- चौथे आरे का काल बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का होता है। दुःख ज्यादा और सुख कम होने से इसे दुषम सुषम आरा कहते है। इस आरे के मनुष्यों का जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट आयुष्य एक करोड पूर्व वर्षों का होता है l इस आरे में छह संघयण और छह संस्थान होते हैं। जीव स्वकृत कर्मों के परिणाम स्वरूप चारों गतियों में जाते हैं l समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्धावस्था को भी उपलब्ध करते हैं l इस आरे में तेवीस तीर्थंकर परमात्मा, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव होते हैं।*

*🍂5) दुषम- अवसर्पिणी के दुषम नामक पांचवें आरे में दुःख बहुत होता है अत: इस दुषम आरा कहते है। इसका काल इक्कीस हजार वर्षों का होता है l अन्तिम संघयण, अन्तिम संस्थान होता है ! उत्कृष्ट अवगाहना सात हाथ की होती है l जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट आयु साधिक सौ वर्ष की होती है। जीव स्वकर्मानुसार चारों गातियों में जाते हैं। चौथे आरे में उत्पन्न जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है पर पांचवें आरे में उत्पन्न जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है l इस आरे के अन्तिम दिन का तीसरा भाग बीतने पर जाति, धर्म, व्यवहार आदि का लोप (विच्छेद) हो जाता है।*

*🍂6) दुषम दुषम- इक्कीस हजार वर्ष का यह छट्ठा आरा अत्यन्त दुःखमय होता है। प्राणी अतिशय दुःखी होते हैं। भयंकर आंधियां, संवर्तक वायु चलती है। आग, बिजली, विष, क्षार की बरसात होती है। इससे वनस्पतियों का विनाश हो जाता है। नदियों में गंगा और सिंधु नदियां ही रहती हैं। नदियों में पानी रथ की धुरी प्रमाण जितना ही गहरा होता है। उसमें भी भयंकर जलचर प्राणी निवास करते हैं l सूर्य की किरणें अति तापयुक्त और चन्द्रमा की किरणे अतिशीतल होती है। भूमि तपे हुए तवे के समान और कीचड, धूल आदि से भरी हुई होती है। छट्टे आरे के मनुष्यों की अवगाहना एक हाथ की, पुरूषों का आयुष्य बीस वर्ष का एव स्त्रियों का सोलह वर्ष का होता है l सन्ताने अधिक होती हैं l वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान, रूप आदि सब कुछ अशुभ होते हैं l शरीर व्याधियुक्त होता है। अत्यधिक राग-द्वेष-कषाय वाले प्राणी होते हैं। गंगा तथा सिंधु नदियों के किनारे स्थित 72 बिलों में मनुष्य रहते हैं। वे सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय मत्स्य आदि को पकडकर रेत में गाड देते हैं। सुबह के छिपाये मत्स्य शाम को, शाम को छिपाये मत्स्य सुबह में निकालकर खाते हैं। हिंसा से परिपूर्ण जीव मरकर प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते हैं।*

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