*पूज्य आचार्य श्रीमद् स्थूलिभद्र स्वामीजी*
*कामविजेता-नामविजेता,*
*विस्मित विजित विकार।*
*सप्तम पट्टे स्थूलिभद्र जी,*
*नित् वंदन बारम्बार ॥*
*84 चौबीसी तक जिनका अमर रहेगा, ऐसे कन्दर्प विजेता एवं दर्प विजेता भगवान महावीर के सातवें पट्टप्रभावक बने। सूत्र की अपेक्षा से वे अंतिम श्रुतकेवली थे।*
*मंगलं भगवान् वीरो,*
*मंगलं गौतमप्रभु।*
*मंगलं स्थूलिभद्राद्या,*
*जैनधर्मोस्तु मंगलं ॥*
*जन्म एवं दीक्षा :*
*मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में नवमें नन्द राजा के महामात्य का नाम शकडाल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम लक्ष्मी था। गौतम गौत्रीय ब्राह्मण होने पर भी उनकी जिनधर्म पर पूरी आस्था थी। वीर निर्वाण संवत 116 (ईस्वी पूर्व 411) में उन्होंने सद्गार्हस्थ्य से स्थूलिभद्र जैसे पुत्ररत्न का जन्म हुआ। तत्पश्चात् श्रीयक नामक पुत्र भी हुआ। यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा- ये 7 पुत्रियाँ भी थीं। पूर्वभव के पुण्योदय से यक्षा को एक बार सुनने पर, दूसरी पुत्री को दो बार सुनने पर इस प्रकार क्रमशः सातवीं पुत्री को सात बार सुनने पर वह ज्यों का त्यों कंठस्थ (याद) हो जाता था।*
*सकल विद्याओं में पारंगत होने के उपरान्त भी मेधासंपन्न युवक स्थूलिभद्र भोग मार्ग से अनभिज्ञ थे। अतः संसार से विरक्त स्थूलिभद्र को कामकला का प्रशिक्षण देने के लिए मंत्री शकडाल ने उसे कोशा गणिका (वेश्या) के पास भेजा। वह अत्यंत रूपसंपन्न एवं चतुर थी। मगध का युवावर्ग उसकी शोभा की कृपा पाने के लिए लालायित रहता था। कामकला से अनभिज्ञ स्थूलिभद्र कोशा के द्वार पर पहुँचकर पुनः घर नहीं लौटा। उसका भावुक मन कोशा के अनुपम रूप पर मुग्ध हो गया। एक वर्ष दो वर्ष, तीन वर्ष क्या... 12 वर्षों तक कोशा वेश्या के सौंदर्य भोग रमण स्थूलिभद्र को मानो अब उसके अलावा कुछ सूझता नहीं था। मंत्री शकडाल को स्थूलिभद्र के जीवन से अनुभव मिला। उसने अपने श्रीयक पुत्र को वहाँ भेजने की भूल न की। वह उसे राज्य संचालन का प्रशिक्षण देने हेतु अपने साथ रखता था।*
*राज्य संचालन हमेशा राजनीति का केन्द्र रहा है। कार्यकुशल श्रीयक राजा को अत्यंत प्रिय लगने के कारण वह उनका अंगरक्षक बना दिया गया। राजनीतिवश शकडाल के कट्टर विरोध कवि वररुचि ने युक्तिबद्ध तरीके से राजा को शकडाल के प्रतिकूल कर दिया। विश्वासघात एवं राजद्रोह के अनर्गल आरोपों से ग्रस्त शकडाल बेवजह राजा के क्रोध व वैर का कारण बन गया। शकडाल एवं उसके परिवार को कभी भी मौत के घाट उतार देने का राजकीय आदेश कभी भी आ सकता था। ऐसे विपत्तिकाल के समय में धर्मनिष्ठ कर्त्तव्यनिष्ठ एवं दीर्घदर्शी शकडाल को यह अनुभव हो गया कि परिवार की सुरक्षा और यश को निष्कलंक रखने के लिए मेरे जीवन का बलिदान आवश्यक है। उसने अपने पुत्र श्रीयक को बुलाकर कहा "यह कार्य अब तुम्हें करना होगा। जिस समय मैं राजा के चरणों में नमस्कार हेतु झुकूँ, उस समय निःशंक होकर मेरा प्राणान्त कर देना। इस समय पितृ प्राणों का व्यामोह अदूरदर्शिता का परिणाम होगा।" श्रीयक स्तब्ध रह गया। वह अपने पिता की हत्या करे, इस चिंता में वह व्याकुल हो गया। अनेकों घंटे उनकी चर्चा चलती रही। अंत में राजभय से आतंकित पिता के कठोर आदेश को अन्यमनस्क भाव से स्वीकार करना पड़ा।*
*पिता पुत्र दोनों राजसभा में उपस्थिति हुए। शकडाल मंत्री जैसे ही राजा नंद को प्रणाम करने झुका, श्रीयक ने शस्त्र प्रहार द्वारा पिता शकडाल का सिर धड़ से अलग कर दिया। राजा नंद के विचारों में उथल-पुथल मच गई। श्रीयक की राजपरिवार के प्रति आस्था देखकर नंद के हृदय में शकडाल की राजभक्ति पुनर्जीवित हो उठी। सुदक्ष अमात्य को खोने का राजा को भारी गम हुआ। महामंत्री शकडाल की दैहिक क्रियाएं पूर्ण करने पर राजा ने श्रीयक को मंत्री पद ग्रहण करने को कहा। श्रीयक नम्र होकर बोला "मेरे पितृतुल्य अग्रज स्थूलिभद्र, जो 12 वर्षों से कोशा गणिका के यहाँ हैं, वे इस दायित्व के योग्य हैं। "*
*राजा नंद का निमंत्रण स्थूलिभद्र के पास पहुँचा राजाज्ञा प्राप्त स्थूलिभद्र ने 12 वर्ष बाद पहली बार कोशा के प्रासाद से बाहर पैर रखा। अपने पिता की मृत्यु के समाचार से वह द्रवित हो चुका था। अपने पिता की मौत के षड्यंत्र से उसका दिल पसीज गया। विवेकसंपन्न स्थूलिभद्र ने साम्राज्य के व्यामोह में विमूढ़ होकर बिना सोचे-समझे मंत्री पद तुरंत स्वीकार करने की भूल न की। राजा की आज्ञा से अशोक वाटिका में वह चिन्तन-मनन करने लगा।*
*"जैसी हालत पिताजी की हुई, वैसी भी मेरी होगी। परानुशासित व्यक्ति को सुख की अनुभूति नहीं होती। राज्य के काम न ही इस लोक का सुख हैं, न ही परलोक का।" इस प्रकार का सतत् चिन्तन करते-करते स्थूलिभद्र में वैराग्य के बीज प्रस्फुलित हुए। उसने संसार के सब प्रपंचों को छोड़ आत्मकल्याण का निश्चय दृढ़ कर लिया। उन्होंने तत्क्षण ही केशलोच कर एवं रत्नकंबल के फलियों का ओघा (रजोहरण) बनाकर साधु रूप में प्रकट हुए एवं कहा - "मैं राग का नहीं, त्याग का उपासक बनना चाहता हूँ।" यह कहकर वह राजप्रासाद से बाहर निकलकर कोशा वेश्या की नहीं, बल्कि जंगल की ओर चल पड़े। उसके चिंतन में वासना का स्थान पूर्णरूप से वैराग्य ने ले लिया था। जैनाचार्य संभूतविजय जी के चरणों में वह उपस्थित हुआ। आचार्य श्री जी ने उसे मुनिधर्म का उपदेश दिया।*
*फलतः 30 वर्ष की आयु में वीर निर्वाण संवत 146 (वि.पू. 324, ई.पू. 381) में आचार्य संभूतविजय जी के पास स्थूलिभद्र ने विधिवत् दीक्षा अंगीकार की।*
*शासन प्रभावना :*
*आचार्य संभूतविजय जी की श्रमण मंडली में स्थूलिभद्र अत्यंत गुणवान् श्रमण थे। उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया तथा मुनिचर्या का प्रशिक्षण लिया। धैर्य, समता आदि गुणों का विकास कर वे संभूतविजयजी के विश्वासपात्र बन गए। एक बार चातुर्मास आने पर स्थूलिभद्र ने गुरुदेव से कोशा वेश्या के घर चातुर्मास की आज्ञा माँगी। स्थूलिभद्र पर अत्यंत विश्वास होने से गुरुदेव ने 'तहत्ति' कहकर आज्ञा प्रदान की। वर्षा ऋतु 84 आसन चित्रित चित्रशाला, षट् रसयुक्त भोजन, लावण्ययुक्त कोशा वेश्या ये किसी में भी भोग की वांछा जागृत करने में सक्षम थे, किन्तु मुनि स्थूलिभद्र अब तन-मन से भोगी से योगी बन चुके थे। स्थूलिभद्र के आगमन से कोशा वेश्या को लगा कि पहले वाले स्थूलिभद्र वापिस आ गए, किंतु मुनि स्थूलिभद्र ने अपनी मर्यादा बताते हुए चातुर्मास की अनुमति माँगी। कोशा को लगा भले ही अभी ये योगी रूप में आए हैं, किंतु यहाँ रहकर मैं पुनः इन्हें भोगी बना ही दूंगी। चातुर्मास काल में वह चित्रशाला कामस्थल से धर्मस्थल बन गई।*
*कोशा प्रतिदिन बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होकर उनके समक्ष आती, कामोत्तेजक नृत्य करती, पूर्व भोगों का स्मरण कराती किंतु स्थूलिभद्र अपने व्रतों में हिमालय की तरह अचल थे। ब्रह्मचर्य का तेज उनके ललाट पर चमक रहा था। उनकी संयम साधना की सर्वोत्कृष्ट परीक्षा में वे सफल हो गए। आखिरकार कोशा हार गई। उसके सभी प्रयास विफल हुए।*
*वह एक संयमी की साधना को भंग करने का प्रयत्न करने के लिए स्वयं को धिक्कारने लगी। जिस तरह जले हुए लोहे पर हथौड़ा मारते हैं उसी प्रकार स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा को इस प्रकार प्रतिबोधित किया, इस प्रकार धर्मोपदेश दिया कि कोशा जैसी वेश्या भी अध्यात्म के मर्म को समझकर व्रतधारिणी श्राविका बनी और विकल्प के साथ जीवनभर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। इस प्रकार काजल की कोठरी में रहकर भी मुनि स्थूलिभद्र न केवल बेदाग रहे, बल्कि अपनी प्रतिबोध शक्ति से जिनशासन की भूरि-भूरि प्रभावना की।*
*चातुर्मास समाप्त होने के बाद जब वे पुनः संभूतविजय जी के पास लौटे, तब आचार्य श्री 7-8 कदम सामने चलकर आए और 'दुष्कर दुष्कर क्रिया के साधक' कहकर कामविजेता स्थूलिभद्र का सम्मान किया।*
*समय के प्रवाह में चलते-चलते संभूतविजयजी के देवलोक प्रस्थान एवं दुष्काल आगमन से श्रुतज्ञान की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी, तब दृष्टिवाद (14 पूर्व का ज्ञान) विच्छेद होता जा रहा था। संघ के निवेदन से भद्रबाहु स्वामीजी ने 500 श्रमणों को नेपाल में अत्यंत दुष्कर दृष्टिवाद की वाचना देनी स्वीकार की। एक-एक करके 499 मुनि वाचना को ग्रहण न कर पाने के कारण चले गए। केवल एक स्थूलिभद्र जी ही रहे। आठ वर्षों तक सतत् वाचना लेने के बाद एक दिन स्थूलिभद्र जी ने भद्रबाहु स्वामीजी से पूछा मैंने 8 वर्षों में कितना अध्ययन किया है और अब कितना शेष है ? आचार्य भद्रबाहु ने कहा- मुने! सर्षप मात्र जितना ग्रहण किया है, मेरु जितना अवशिष्ट (शेष) है। दृष्टिवाद के अथाह ज्ञान सागर से अभी तक बिंदु मात्र लिया है। " आर्य स्थूलिभद्र ने निवेदन किया प्रभो! मैं अगाध ज्ञान की सूचना पाकर हतोत्साहित नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अल्पमात्रा में मिल रही है। ऐसे में मेरु जितना ज्ञान कैसे ग्रहण करूंगा?" तब आचार्यश्री ने आश्वासन दिया कि मेरी महाप्राणध्यान साधना सम्पन्नप्रायः है। तत्पश्चात् मैं तुम्हें रात-दिन यथेष्ट समय वाचना के लिए दूंगा।*
*आर्य स्थूलिभद्र ने 10 पूर्वो की वाचना ग्रहण कर ली। तब वे पाटलिपुत्र पधारे। यक्षा आदि (स्थूलिभद्रजी की बहन) साध्वियाँ भद्रबाहु स्वामीजी को वंदनार्थ पधारी उस समय स्थूलिभद्रजी एकांत में ध्यानस्थ थे। आचार्य भद्रबाहु स्वामीजी के पास अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि को न देखकर साध्वीजी ने उनसे जिज्ञासा रखी कि हमारे सांसारिक भाई मुनि स्थूलिभद्र कहां हैं? आचार्य श्री ने स्थूलिभद्र के स्थान का निर्देश किया। यक्षा आदि साध्वियाँ वहाँ पहुँची। उन्हें आते देखकर स्थूलिभद्रजी ज्ञान का चमत्कार दिखाने के लिए कुतूहलवश सिंह (शेर) का रूप बनाकर बैठ गए। वहाँ शेर को देखकर साध्वियाँ डरकर पुनः भद्रबाहु स्वामीजी के पास आकर बोली कि महाराज! वहाँ सिंह बैठा है। लगता है उसने हमारे भाई का भक्षण कर लिया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानोपयोग से जाना और कहा कि वहाँ पुनः जाओ। स्थूलिभद्र वहीं हैं। साध्वीजी पुनः उसी स्थान पर गई इस बार वहां सिंह के स्थान पर स्थूलिभद्र जी ही थे। बहन साध्वियों ने हर्षातिरेक होकर स्थूलिभद्र जी को वंदन किया। इसी प्रकार अपने विद्या बल से इन्हीं दिनों में स्थलिभद्र जी ने अपने बचपन के किसी ब्राह्मण मित्र को गड़े हुए धन के बारे में बताया।*
*उसके बाद स्थूलिभद्रजी श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीजी के पास वाचना लेने आए। आचार्यश्री ने फरमाया - वत्स ! ज्ञान का अहं आत्म विकास में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर स्वयं को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब से तुम वाचना के योग्य नहीं हो।" स्थूलिभद्रजी के पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्हें अपनी भूल समझ आ गई। उन्होंने बहुत क्षमा माँगी, बहुत रूदन किया किंतु भद्रबाहु स्वामीजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब सकल संघ ने स्थूलिभद्र को ही दृष्टिवाद के लिए योग्य जानते हुए आचार्य श्री जी से पुनर्विचार करने हेतु कहा। तब आचार्य भद्रबाहु ने फरमाया मुनि स्थूलिभद्र अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न हैं। वे कंदर्पविजेता तो थे ही, अब दर्पविजेता भी हो गए। किंतु भविष्य में इनसे मंद सत्त्व साधक होंगे। पात्रता के अभाव में ज्ञानदान ज्ञान की आशातना है। इसी उद्देश्य से मैं स्थूलिभद्र को अंतिम 4 पूर्व केवल मूल से पढ़ाऊंगा, अर्थ नहीं एवं ये 4 पूर्व सूत्ररूप में भी तुम आगे किसी को नहीं देना। इस प्रकार स्थूलिभद्रजी सूत्र की अपेक्षा से 14 पूर्वधर थे, किंतु अर्थ की अपेक्षा से 10 पूर्वधर बने।*
*इसी काल में आचार्य स्थूलिभद्रजी की बहन साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र में विराजित सीमंधर स्वामीजी के मुख से 4 अध्ययन भरत क्षेत्र में लाई थी। श्रीयक मुनि तपस्या नहीं कर पाते थे, लेकिन संवत्सरी के दिन साध्वी यक्षा ने नवकारसी, पोरिसी करा-कराके उनसे उपवास कराया लेकिन उसी दिन श्रीयक मुनि का कालधर्म हो गया।*
*साध्वी यक्षा आत्मग्लानि से भर गई कि उनके कारण ही मुनिश्री की मृत्यु हुई। संघ ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है। उनका तो आयुष्य पूरा हो गया था। तब साध्वी यक्षा नहीं मानी और श्रमणसंघ से प्रायश्चित मांगा। साध्वी जी ने कहा "यदि तीर्थंकर परमात्मा साक्षात् कहें कि मैं निर्दोष हूं, तभी मेरा हृदय शांत होगा। " संघ ने शासनदेवी की आराधना के लिए*
*काउसग्ग किया। शासनदेवी साध्वी यक्षा को सीमंधर स्वामी जी के पास ले गई। वहां जो प्रभु ने देशना दी थी, साध्वी यक्षा को एक बार सुनते ही याद हो गई। देशना पश्चात् प्रभु ने समाधान करते हुए कहा कि साध्वी यक्षा निर्दोष है। वे पुनः भरत क्षेत्र वापिस आ गए।*
*प्रभु के मुख से सुने हुए भावना, विमुक्ति, रतिकल्प एवं विविक्तचर्या ये अध्ययन - चूलिका रूप में आचारांग और दशवैकालिक सूत्र में जोड़ दिए गए।*
*इस काल में मौर्यवंश का अत्याधिक विकास हुआ। मौर्यवंश के आद्य मार्गदर्शक अर्थशास्त्र रचयिता महामात्य चाणक्य (कौटिल्य) भी इस युग की बहुचर्चित विभूति थे। उन्होंने भी जिनधर्म के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया था।*
*कालधर्म :*
*आचार्य भद्रबाहु के बाद वीर निर्वाण संवत 170 में स्थूलिभद्रजी ने आचार्य पद का नेतृत्व संभाला एवं 45 वर्षों बाद राजगृह के वैभारगिरि पर्वत पर 15 दिन के अनशन के साथ वीर निर्वाण संवत 215 (वि.पू. 255) में स्वर्गवासी बने। उनके कालधर्म के बाद ही चार पूर्वो का ज्ञान, महाप्राणध्यान साधना समचतुरस्त्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन का भी विच्छेद हो गया।*
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