Trishala Mata

इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ

🌹 त्रिशलामाता 🌹

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          तेजस्वी , तपस्वी एवं जगतारक महान पुत्र वर्धमान को जन्म देने का अवर्णनीय गौरव त्रिशलामाता को प्राप्य है। अपने जीवन की महत्ता के कारण आप सदैव पूजनीया एवं वंदनीया रहीं । क्षत्रियकुंड के राजा सिद्धार्थ की रानी वैशाली गणराज्य के राजा चेटक की बहन त्रिशला के मातृत्व की महिमा अपरंपार है और काव्यसर्जकों ने उसका हृदयस्पर्शी वर्णन किया हैं ।

             देवानंदा के 82 दिनों के गर्भ को लेकर हरिणैगमेषी देव उसे राजा सिद्धार्थ की पटरानी त्रिशलादेवी के उदर में रखते हैं । एक शुभ रात्रि को त्रिशला अपने शयनखंड में सो रही थी , तब अंतिम प्रहर में उन्होंने सुखदायक 14 स्वप्न देखे । इन महामंगलकारी 14 स्वप्नों का वर्णन उन्होंने अपने पति राजा सिद्धार्थ से किया । राजा ने तत्काल स्वप्नपाठकों को बुलवाकर रानी त्रिशला ने देखे हुए 14 स्वप्नों का भावसंकेत पूछा । रानी त्रिशला ने इन स्वप्नों में इन्द्र के हाथी ऐरावत जैसा श्वेत हाथी देखा । शुभ दंतपंक्तिवाला ऋषभ ( बैल ) देखा । वन के राजा केसरीसिंह को देखा । मनोहर लक्ष्मीजी , प्रफुल्लीत पुष्पमाला , प्रकाशित चंद्र और लालिमायुक्त बालसूर्य को देखा । लहराती ध्वजा और चाँदी का मंगलकलश , सरोवरों में श्रेष्ठ ऐसा पद्मसरोवर और सागरों में सर्वोत्तम ऐसा क्षीरसागर देखा । आकाश में सुशोभित देवविमान , श्रेष्ठ रत्नों की राशि और बिना धुएँ के अग्नि देखा । स्वप्नपाठकों ने इनका संकेत प्रकट करते हुए कहा , " हे राजन ! आपके यहाँ सिंह समान निर्भय तथा दिव्य शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न होगा । वह या तो धर्मचक्रवर्ती बनेगा अथवा राजचक्रवर्ती होगा । " माता त्रिशला के उदर में बिराजमान गर्भस्थ वर्धमान सोचते है कि मेरे विकसित होते हुए अंगोपांग और मेरा हलनचलन माता को कठोर पीड़ा पहुँचाते है ? मुझे तो सर्व जीवों का श्रेय सिद्ध करना है , तब अत्यंत उपकारी माता को मेरे हलनचलन न हो यह कैसे चले ? अतः त्रिशलामाता के उदर में स्थित गर्भ शान्त हुआ । त्रिशला की शारीरिक बैचेनी कम हुई पर मन की बैचेनी अचानक बढ़ गई । त्रिशला को संदेह हुआ कि क्या किसी देव ने मेरे गर्भ का हरण कर लिया होगा या फिर मेरा गर्भ गल गया होगा ? इस प्रकार विभीन्न शंका-कुशंका करते हुए त्रिशलामाता आक्रंद करने लगी । राजा सिद्धार्थ चिंतातुर हुए । राजमहल में हो रहे नाटक एवं आनंदप्रमोद रुक गये और वीणा एवं मृदंग बजते हुए बन्द हो गये । त्रिशलामाता मूर्छित हो गई इस समय गर्भस्थ वर्धमान ने अवधिज्ञान से माता-पिता और परिवार के लोगों को शोकग्रस्त देखे । आपने सोचा कि मैने जो काम माता के सुख के लिए किया , उससे तो उल्टे दुःख निष्पन्न हुआ । अमृत की अटकल की थी , वह विष बन गया ।

           भरे हुए जलाशय में मत्स्य जिस तरह हिल उठे उस तरह गर्भ फड़क उठा और माता हँस पड़ी और उनके आसपास की समग्र सृष्टि हर्ष से नाच उठी । इस घटना ने वर्धमान की महान आत्मा पर प्रगाढ़ प्रभाव किया । उन्होंने सोचा कि माता को पुत्र पर कैसा बेजोड़ प्रेम होता है ! अभी तो मैं गर्भ में हूँ , माता ने मेरा मुख भी नहीं देखा , तथापि कितना सारा अधिक प्रेम ! ऐसे लाड़ले माता-पिता हों और मैं संयम धारण करुँ तो उन्हें बहुत दुःख होगा अतः मैं अभिग्रह करता हूँ कि माता-पिता की अनुमति के बिना मैं संसार का त्याग करके दीक्षा नहीं लूँगा । जन्म से पूर्व भगवान ने सर्वप्रथम उपदेश मातृभक्ति का दिया ।

           विक्रम संवत् पूर्व 543 की चैत मास की सुदि 13 की मध्यरात्रि को राजकुमार वर्धमान का जन्म हुआ । पृथ्वी और पाताल में लोकोत्तर दिव्य प्रकाश फैल गया । छप्पन दिक्कुमारिकाएँ भगवान के जन्म के प्रसंग पर अपना कर्तव्य बजाने के लिए जन्म की रात को ही आ पहुँची । इन कुमारिकाओं ने नाट्य , नृत्य और गीत प्रारंभ किये । मानो दृष्टि समक्ष स्वर्ग साकार कर दिया । राजकुमार वर्धमान जवान होने पर रानी त्रिशला ने उनका यशोदा के साथ विवाह करवाया और माता की इच्छा को मान्य रखते हुए वर्धमान ने विवाह किया । त्रिशलादेवी ने अपना अंत समय निकट जानकर पाप की आलोचना की , चतुर्विध आहार का त्याग करके अनशन किया और मरणांतिक संलेखना ( अनशन ) से देहत्याग करके बारहवें स्वर्ग में सिधार गई । त्रिशलामाता कोई सामान्य पुत्र की जननी नहीं , बल्कि त्रिकालज्ञानी , दीर्घ तपस्वी, अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर को जन्म देने वाली जननी हैं , जिस प्रभु महावीर की सेवा करने के लिए स्वयं इन्द्रराज सदैव आतुर रहते थे । इसलिए तो उनकी महिमा की कोई सीमा नहीं हैं ।

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साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा

 


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