*🌹सुशीला 🌹*
*सुशीला के पतिप्रेम की इस कथा में धैर्य , चातुर्य और पति - सम्बन्धी हित-चिंता अभिव्यक्त होती है । पृथ्वीपुर नामक नगर में रहते श्रेष्ठी सुभद्र बारहव्रतधारी श्रावक थे । एक बार व्यापार के सम्बन्ध में उन्हें राजपुर नगर के जिनदास सेठ के पास जाना पड़ा । जिनदास की पुत्री सुभद्रा अपने स्वभाव के कारण सुशीला नाम से पहचानी जाती थी । सुशीला की धर्मपरायणता देखकर उसके पिता ने सुभद्र के साथ धूम-धाम से उसका विवाह किया ।*
*विवाहजीवन के प्रारंभ में घटित एक घटना ने सुभद्र तथा सुशीला के दाम्पत्यजीवन में एक बड़ी दरार उत्पन्न कर दी । सुशीला की सखी के लावण्य पर सुभद्र मोहित हुआ । दिन -रात वह उसकी सखी के विचारों में ही खोया रहने लगा । कुलवान होने से सुभद्र कुछ बोला नहीं , परंतु उसका दुर्बल होता शरीर उसके व्याकुल मन की चुगली खाता था । पति की ऐसी दशा का कारण जानने के लिए सुशीला ने अत्यधिक आग्रह किया , तब सुभद्र ने कहा कि उसकी सहेली के विरह के कारण उसकी ऐसी दुर्बल दशा हुई हैं ।*
*चतुर , सुशीला ने पति से कहा , " तुम सारी चिंता छोड़ दों । निश्चिंत बनिए । मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करुँगी । इसके अतिरिक्त मेरी सहेली भी मेरी बात नहीं टालेगी । केवल इतना कि मेरी सखी सिंगार धारण करके शयनखंड में आयेगी तब वह शर्म से लजा जायेगी । इसलिए शयनगृह में वह प्रवेश करें कि तुरंत ही तुम दिया बुझा देना । "*
*विषयांध श्रेष्ठी सुभद्र ने यह बात मान्य रखी । सयानी सुशीला ने स्वयं सोलह सिंगार सजे । वह सोचती थी कि मुझे अपने पति का व्रतखंडित नहीं होने देना है । बारहव्रतधारी श्रावक और परस्त्री की अभिलाषा ! रात के अँधेरे की परछाइयाँ फैलने लगीं , तब सुशीला ने कोई बहाना बताकर अपनी सखी को बुलाया और उसके साथ हर्षोल्लास से बाते करने लगी । यह देखकर सुभद्र को भरोसा हो गया कि आज अब उसकी दीर्घकालीन तीव्र अभिलाषा पूरी होगी ।*
*सुगंधित पुष्प , धूप , चंदन , कपूर , कस्तूरी , तांबूल आदि सामग्री से सज्ज शय्या के पास सुभद्र बैठा था । पूरा शयनखंड फूलों से सजाया हुआ था । दीपक का सुनहरा प्रकाश सर्वत्र फैल रहा था । सुशीला ने अपनी सखी की तरह चलते हुए भीतर प्रवेश किया । सुभद्र ने दिया बुझा दिया और उसे पलंग पर खींचकर प्रेमगोष्ठी करने लगा । प्रातःकाल का उजाला हो उससे पूर्व ही वह स्त्री पलंग से उठकर घर जाने का कहकर चली गई ।*
*सवेरे सूर्योदय हुआ तब श्रेष्ठी सुभद्र के चित्त में बवंडर जाग उठा । मन-ही-मन सोचने लगा कि स्वयं कैसा विषय का गुलाम बना ! जिनेश्वर भगवान ने प्रबोधित शील की महत्ता भूल बैठा । उसके हृदय में पश्चाताप् की आग पीड़ित करने लगी । अपने दुष्कृत्य के लिए अपने आप पर फिटकार बरसाने लगा । श्रेष्ठी सुभद्र का अंतर उसे लगातार डसने लगा । जीवन की सारी संपत्ति मानो घड़ीभर में लुट गई न हो ! उसे जीवन जीना दुभर प्रतीत हुआ । कभी मन में विचार उठता कि चारित्रभंग के बाद इस जीवन का क्या अर्थ है ? कभी मन में लगता कि जीवन में शील तो रत्नरुप हैं । रत्न खो जाने के पश्चात् यही जीवन व्यर्थ हैं । इसके फलस्वरुप सुशीला सामने आती , तो सुभद्र की दृष्टि अपराधी की तरह नीचे झुक जाती । पत्नी की आँख के साथ आँख मिलाने की उसमें ताकत नहीं थी । यह देखकर चतुर सुशीला ने सोचा कि उसके पति में अब भी लज्जा और शर्म हैं । ऐसी पापभीरुता होने से वह सुगमता से धर्ममार्ग पर वापस लौट सकेंगे ।*
*सुशीला सामायिक में स्वाध्याय करते समय व्रत पालनें और न पालनें के प्रसंग पढ़ती थी और सुभद्र सुने इस तरह व्रतभंग से होती हुई हानि के बारें में बोलती थी । उसने कहा कि जो लोग व्रत का प्राणों की तरह पालन करते है वे धन्य हैं । सुभद्र मन-ही-मन पत्नी की भावना की प्रशंसा करता था , पर स्वयं से हुए व्रतभंग का दुःख उसके हृदय में सतत काँटे की तरह चुभा करता था । इसके फलस्वरुप वह मन से उदास एवं तन से कृश होने लगा । सुशीला के आग्रह करने पर सुभद्र ने सच्ची बात बतायी , तब पति के शुद्ध अंतःकरण तथा शुभ परिणाम को जानकर अपनी चेष्टाएँ , बातें , संकेत -सब कहकर समझाया कि वह मेरी सहेली नहीं , मैं स्वयं ही थी । सुभद्र ने विचार किया कि लोकोत्तर धर्म में निपुण यह नारी धन्य हैं । तत्पश्चात् पति -पत्नी दोनों ने चारित्र्य व्रत लिया और उत्कट आराधना करके केवलज्ञानी होकर मोक्ष में सिंधारे ।*
*एक सवाल 🙋 सुभद्र किस पर मोहित हो गया था ❓*
*साभार 🙏🌹🙏*
*जिनशासन की कीर्तिगाथा*
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