Sulasha

सुलसा
            *भगवान महावीर चंपानगरी में समवसरण में देशना देते थे , तब राजगृही नगर की ओर जाते हुए अंबड़ परिव्राजक से कहा , " तुम राजगृही जाओ तब नागसारथि की शीलवती श्राविका सुलसा को मेरा धर्मलाभ कहना । "*
            *अंबड़ परिव्राजक को ज्ञात हुआ कि प्रभु महावीर जिस श्राविका को धर्मलाभ कहलवातें हैं , वह श्राविका धर्म एवं व्रत से कैसी सुशोभित होगी ! अंबड़ परिव्राजक को सुलसा की धर्मभावना की अग्निपरीक्षा लेने की इच्छा हुई , इसलिए यति का वेश धारण करके सुलसा के पास सचित की माँग की , परंतु सुलसा तनिक भी चलायमान नहीं हुई । तत्पश्चात् उसने ब्रह्मा का रुप धारण किया और नगर के पूर्व द्वार पर चार मुख , राजहंस पर सवारी , अर्धांग सावित्री -इस तरह साक्षात ब्रह्मा होने का दिखावा सर्जित किया । यह चमत्कार देखने पूरी नगरी उमड़ पड़ी , परंतु धर्मनिष्ठ सुलसा की प्रभुनिष्ठा तनिक भी चलित नहीं हुई । दूसरें दिन उसने शंकर का , तीसरे दिन श्री विष्णु का और चौथे दिन तीर्थकर का रुप धारण किया । तीर्थकर की 64 इन्द्र सेवा करते हों , आसपास अष्ट महाप्रतिहार्य हों ओर समवसरण रचा हो और उसमें पच्चीसवें तीर्थकर बिराजमान हों , ऐसा दृश्य खड़ा किया । अंबड़ को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चाहे जैसे भी तीर्थकर के दर्शन करने तो सुलसा आयेगी ही , पर सुलसा नहीं आयी । दूसरी ओर राजगृही नगरी का जनसमुदाय इस पच्चीसवें तीर्थकर के दर्शनार्थ उमड़ पड़ा । आखिर अंबड़ ने किसी के साथ सुलसा को आने का निमंत्रण भेजा और साथ में यह ताकीद भी की कि सुलसा तो तीर्थकर की परम उपासक हैं और वह स्वयं तीर्थकर के दर्शन करने न आये , यह कैसा माना जाये ?* 
             *सुलसा ने निमंत्रण लाने वाले को प्रत्युतर दिया , " महानुभाव ! यह पच्चीसवें तीर्थकर नही हैं , बल्कि कोई धूर्त और मायावी मानवी तीर्थकर बन बैठा हैं । तीर्थकर भगवान पधारे उसकी जानकारी तो वायु तथा वनस्पति से भी सबको हो जाये । आज ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा , बल्कि उन्हें अपने आगमन की जानकारी देनी पड़ती है । "*
         *सुलसा की अचल धर्मश्रद्धा देखकर अंबड़ ने अपने विभिन्न रुप समेट लिये । सुलसा के घर आकर उसने कहा , " तुम सचमुच ही अत्यंत भाग्यशाली हो । चंपानगरी में बिराजते भगवान महावीर स्वामी ने स्वयं तुम्हें मेरे द्वारा धर्मलाभ कहलाया है । "*
          *यह सुनकर सुलसा के मन में रोमांच हुआ और आनंद उमड़ पड़ा । उसकी वाणी भक्ति से गद्गदित हो गई । भगवान जिस दिशा में बिराजमान थे , उस दिशा को वंदन करके भगवान की स्तुति करने लगी । उसकी भक्ति और श्रद्धा से परिव्राजक प्रसन्न हुआ।* 
          *सुलसा गुणवती, शीलवती एवं शांतिप्रिय स्वभाव की थी । उसे पुत्रयोग न होने से उसने पति को अन्य कन्या से विवाह करने को कहा था , परंतु उसके पति नाग ने कहा , " मेरे भाग्य में पुत्रयोग होगा तो वह तुमसे ही । " उसके बाद सुलसा ने तपश्चर्या और धर्मआराधना प्रारंभ की । उसकी भावविशुद्धिमय आराधना से प्रसन्न हुए इन्द्र ने देवसभा में उसकी प्रशंसा करने पर हरिणैगमेषीदेव ने उसकी कसौटी की । वे साधु का रुप धारण करके आये और सुलसा से लक्षपाक तेल की माँग की । सुलसा लक्षपाक तेल का कुंभ लेकर आयी , परंतु देव ने अदृश्य रीति से तेल का कुंभ गिरा देने से तेल ढुल गया । इस प्रकार चार घड़े लाई और सभी देव ने तोड़ डालें । फिर भी सुलसा के चेहरे पर क्लेश की एक रेखा भी नजर न आयी । सुलसा की स्वस्थता , संकल्पशक्ति एवं जिनभक्ति देखकर देव ने उसे आशीर्वाद दिये और सुलसा के बत्तीस पुत्र हुए ।*
         *सुलसा ने पुत्रों को धर्म , कला , नीति एवं शास्त्र में निपुण बनाये , परंतु राजगृही नगरी के श्रेणिक राजा के पक्ष में रहकर चेटक राजा के सामने लड़ते हुए उसके बत्तीस के बत्तीस पुत्र युद्ध में बलि चढ़ गये । सुलसा पारावार शोक में डूब गई । नगरजन शोक में सहभागी बनने आये । इस समय अभयकुमार ने शोक करने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान होने से विशेष कर्मबंध होता हैं ऐसा कहकर सुलसा और नाग को शांति प्रदान की । इस सुलसा ने श्राविका के रुप में उत्तम जीवन बिताया और समाधिमरण प्राप्त करके देवलोक में सिधार गई । ऐसी श्राविका की आत्मा आगामी चौबीसी में निर्मम नामक पंद्रहवी तीर्थकर होगी । धर्मश्रद्धा की अपूर्व कसौटियों को पार करनेवाली सुलसा के जीवन में जैन धर्म के प्रति की अटल श्रद्धा आयंबिल व्रत की कठिन तपश्चर्या , निर्मल समकित भावना , उदात्त स्वभाव और सत्वशील जीवन दृष्टिगत होता है ।*


साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा

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