प्रभावती
सिंधु-सौवीर देश के वीतभय नगर के बाजार के चौक में
समुद्रमार्ग से आई एक पेटी -संदूक ने पूरे नगर में उत्सुकता जगाई थी । यह पेटी
लानेवाले नाविक ने कहा , " इस पेटी में भगवान
की अत्यंत प्रभावक प्रतिमा है । भगवान जब विचरण करते थे , तभी यह प्रतिमा तराशी गई है । यह प्रभुप्रतिमा धारण
करनेवाली पेटी जो खोल पायेगा , वह महाभाग्यशाली
व्यक्ति होगा । उसे सकल सुख प्राप्त होगे और वह जीवन में परम कल्याण को प्राप्त
करेगा । "
नगर के चौक में रखी हुई पेटी को खोलने का कई संतों , श्रेष्ठियों तथा कारीगरों ने प्रयत्न किया , परंतु सबको असफलता ही प्राप्त हुई । किसी प्रकार से पेटी
खुलती न थी । राजा उदयन के लिए भी यह पेटी चिंता का विषय बन गई । भोजन के समय राजा
उदयन के चेहरे पर चिंता देखकर रानी प्रभावती ने पूछा ,
" आज आप चिंता के सागर में डूबे
हो ऐसा ज्ञात होता हैं । भोजन कर रहे हो , परंतु आपको भोजन में मजा नहीं आ रहा । बार-बार कौर हाथ में ही रह जाता है और
विचार में डूब जाते हो । क्या हुआ है आपको ? "
राजा उदयन ने अपने आकुलता के बोझ से दबे हुए स्वर में कहा , " इतने बड़े नगर में एक भी कल्याणकारी व्यक्ति मिलता नहीं है
। प्रभुप्रतिमा धारण की हुई पेटी को खोलने के लिए जो कोई भी आये थे वे नाकामियाब
रहे । प्रभु के पावनकारी दर्शन कब होगे , इसकी बड़ी भारी चिंता है । "
रानी प्रभावती ने पेटी खोलने का प्रयास करना तय किया । पेटी
के निकट जाकर उस पर जल-दूध का अभिषेक किया । धूप , दीप , अक्षत आदि से उसकी पूजा की ।
उसके हृदय में प्रभुभक्ति का आनंद उभर रहा था । वह अरिहंत का स्मरण करते हुए बोली ,
" हे देवाधिदेव अरिहंत भगवान !
आपके दर्शन के लिए आतुर मुझे दर्शन दीजिये । "
प्रभावती के पवित्र अंतःकरण से अभिव्यक्त शब्दों के
परिणामस्वरुप पेटी खुल गई । लोगों में जैन धर्म का महिमागान होने लगा । राजा ने
जिनमंदिर बनवाकर उसमें प्रभुप्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । नगरजन भाव से उसकी पूजा
करने लगे । प्रभावती की प्रभुभक्ति की महिमा होने लगी ।
रानी प्रभावती ने अपनी दासी के पास एक समय पूजा करने के लिए
श्वेत वस्त्र मँगवाया । इस वस्त्र पर रक्त के दाग देखकर आक्रोश से उसका दासी पर
प्रहार किया । इसके कारण आघात लगने से दुर्भाग्य से दासी की मृत्यु हुई । रानी ने
जमीन पर पड़ा हुआ वस्त्र पुनः देखने पर उसे श्वेत दिखा । रानी प्रभावती को अनहद
पश्चाताप हुआ । उसमें भी पंचेन्द्रिय जीव की हत्या की घटना ने उसके हृदय को मथ
डाला ।
एक बार प्रभावती प्रभुभक्ति कर रही थी , तब राजा को उसकी मस्तकहीन छाया दृष्टिगत हुई । राजा व्याकुल
हो गये ।राजा ने कहा कि पूर्ववृतांत के अनुसार यह रानी प्रभावती की मृत्यु का
संकेत हैं । मृत्यु की ऐसी आशंका से रानी प्रभावती तनिक भी चिंतित नहीं हुई । धर्म
के प्रति उसका स्नेह आखंडित रुप से प्रवाहित होता रहा ।
रानी प्रभावती अपने अल्प आयुष्य को जानती थी । उसने राजा उदयन से कहा कि उसकी इच्छा दीक्षा अंगीकार करने की हैं । राजा ने प्रभावती को दीक्षा की संमति दी । प्रभावती उत्कृष्ट तप करके संयम की अपूर्व आराधना की । प्रभावती का जीवन धीरे-धीरे कल्याण के एक के बाद एक सोपान चढ़ने लगा । उसने संसार के अनेक रंग देखे थे । अब उसे साधुत्व का संग त्यागना नहीं था । अंत में अनशन करके प्रभावती ने संयम की अपूर्व आराधना की । सतियों के चरित्र में प्रभावती का विशिष्ट स्थान हैं । अरिहंत परमात्मा की अचल भक्ति उसके जीवन में दृष्टिगत होती हैं । उसकी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा को देखकर राजा उदयन और वीतभय नगर के नगरजन अभय के मार्ग पर चलने के लिए जैन धर्म के अनुयायी बने । इस प्रकार उत्कृष्ट धर्मआराधना करके सुंदर धर्मप्रभावना करनेवाली प्रभावती आज भी प्रातः स्मरणीय सती के रुप में सबकी वंदना प्राप्त करती हैं ।
जिनशासन की कीर्तिगाथा
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