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*इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ*
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*पाटपदे* 🌷
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*राजस्थान के इतिहास में प्रतापी जैनों के अपनी निष्ठा , शौर्य एवं सच्चाई के कारण राज्य के दीवान या मंत्री पद को सुशोभित करने के अनेक ज्वलंत उदाहरण प्राप्त होते है । इसी वजह से राजस्थान के शासक भी जैन धर्म की जीवदया का आदर करते , जैन देरासरों का जिर्णोद्वार करवाते और जैन मुनिराजों से मार्गदर्शन उपदेश प्राप्त करते थे ।*
*राणा जगतसिंह ने अपनी जन्मतिथि के मास में और भादों महीनें में जीवहिंसा पर प्रतिबंध रखा था । राणा कुंभा ने बनवाये हुए जिनालय का जिर्णोद्वार किया था और उदयपुर के पिछोला सरोवर में तथा उदयसागर में मछलियाँ पकड़ने पर प्रतिबंध रखा था । राणा जगतसिंह के पुत्र राजसिंह के शासनकाल में दयालशाह राज के दीवान थे ।*
*दयालशाह ने एक करोड़ रुपयों का खर्च करके बावन देहरों या देवस्थानोंवाला , नौ मंजिलों का ऊँचा जिनप्रासाद बँधवाया । दयालशाह के मन में इससे भी भव्य जिनालय निर्माण करने की भावना थी , परंतु मुगल बादशाह औरंगजेब को यह विराट किले-दुर्ग जैसा जिनप्रासाद व्याकुलता -वर्धक ज्ञात हुआ । औरंगजेब की रगो में प्रवाहित धर्मजनून इस विशाल प्रासाद को देखकर बहक उठा । शक्की औरंगजेब को यह भी प्रतीत हुआ कि यह प्रासाद के नाम पर कोई दुश्मन द्वारा किला तो बनाया नहीं जा रहा है न ? ऐसा प्रचंड़ दुर्ग बनाकर राणा की स्वतंत्र होने की कोई चाल तो नहीं होगी ना ?*
*विक्रम संवत् 1730 में औरंगजेब विशाल सेना के साथ चढ़ आया । दीवान दयालशाह राणा की ओर से बादशाह के सामने लड़े । । दीवान ने बादशाह औरंगजेब को भी समझाया कि यह जिनालय तो केवल दो मंजिला ही हैं । उसका शिखर ऊँचा होने से आपको यह गगनचुंबी लगता हैं । दीवान दयालशाह की चालाकी से जिनप्रासाद की रक्षा हुई , परंतु राणा राजसिंह इस घटना से बेचैन हो उठे । बादशाह का खौफ उठाने के लिए राणा तनिक भी तैयार नहीं थे । मन में ऐसा भी लगा कि जिनप्रासाद का निर्माण करते हुए कदाचित् राज गँवाने की स्थिति आ जाये । इसके फलस्वरुप स्वयं राणा राजसिंह इस जिनप्रासाद में जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा करने की अनुमति नहीं देते थे ।*
*इस समय राणा राजसागर तालाब का पाल -किनारा बँधवा रहे थे । बरसात का पानी भर जाने से तालाब फट जाता था और आसपास के निवासी जलसमाधि प्राप्त करते थे । राजसागर तालाब की पाली बन रही थी , पर कहीं से अचानक पानी वेग से आता और पाल-पाली टूट जाती । दीवान दयालशाह की पत्नी पाटपदे अत्यधिक धर्मिष्ठ एवं शीलपरायण थीं । जिनप्रासाद की रक्षा होने से उसके हृदय में अपार आनंद हुआ था , परंतु प्रतिष्ठामहोत्सव का मांगलिक अवसर आता नहीं था , इसका उसे अपने हृदय में गहरा अफसोस था ।**
*राणा राजसिंह ने सोचा कि पाटपदे जैसी सुशील तथा धर्मनिष्ठा नारी पाल बाँधने के कार्य की नींव डालें तो कदाचित् उसमें सफलता प्राप्त हो । पाटपदे ने पाल की नींव डाली और कुछ ही समय में वह पाली बँध गई । उसके बाद चौमासें में अत्यधिक मूसलाधार बरसात हुई , फिर भी राजसागर तालाब का पाल टूटा नहीं । राजा के आनंद की कोई सीमा न थी । हृदय में सच्चा धर्म हो तो उसका कैसा प्रभाव होता हैं ।*
*प्रसन्न हुए राणा राजसिंह से दीवान की पत्नी पाटपदे ने विनती की कि आप पुनः चतुर्मुख जिनप्रासाद तैयार करने की और उसमें परमात्मा की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करने की हमें अनुमति दीजिए । राणा इस धर्मप्रिय नारी की भावना का अनादर नहीं कर सके । दीवान दयालशाह और उनकी पत्नी पाटपदे के जीवन का महामंगलकारी दिन आ पहुँचा ।*
*विक्रम संवत् 1732 की वैशाख सुद 7 के गुरुवार के दिन विजयगच्छ के आचार्य विनयसागरसूरि के हाथों से जिनप्रासाद और जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की गई । कमनीय शिल्पाकृतिवाला जिनप्रासाद तैयार हो गया । उसकी तलहटी में धर्मशाला बनवाई गई । आज जैन यात्रिक मेवाड़ की यात्रा करते हैं , तब दीवान दयालशाह की काबिलियत एवं उनकी पत्नी पाटपदे की धर्मभावना को नतमस्तक वंदन करते हैं ।*
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*साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा*
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