Panchasara Parswnath

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*🛕108 श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी तीर्थ🛕*
 *क्रमांक 2️⃣6️⃣*
 *🛕श्री पंचासरा पार्श्वनाथ प्रभु 🛕*  
श्री पंचासरा पार्श्वनाथ – पाटण तीर्थ
*मूलनायक -* लगभग 120 सेंटीमीटर ऊँची भगवान पंचासरा पार्श्वनाथ की सफेद रंग की पद्मासन मुद्रा मूर्ति । मूर्ति के सिर के ऊपर 7 सर्पमुख का छत्र भी है।

*तीर्थ -* यह गुजरात के पाटण शहर के केंद्र में है ।

*ऐतिहासिकता -* इस शहर का इतिहास विक्रम युग के 802 से शुरू होता है ।

लेकिन यह पंचासरा पार्श्वप्रभु की प्रतिमा उससे भी पुरानी है । इस नगरी का इतिहास प्राचीन तो है ही, अति गौरवशाली व संशोधनिय भी है । वल्लभी व भीनमाल के पतन की पूर्ति कर सके, ऐसी समर्थ भूमि की खोज में चावड़ा वंश के पराक्रमी राजा श्री वनराज लगे हुए थे, ताकि वहां अपनी वैभवशाली राजधानी बना सके । उन्होंने ताकिर्क शिरोमणि गोपालक अणहिल भरवाड से चर्चा की एवं उपर्युक्त भूमि की खोज करने के लिए कहा । अणहिल भरवाड ने सरस्वती नदी से निर्मल होती, इस सर्वोत्तम जगह पर कुत्ती व सियार को देखा । अत: उसने उत्तम शकुन समझकर इसी जगह राजधानी बसाने की श्री वनराज चावड़ा को सलाह दी ।
जैन शास्त्रनुसार अणहिल भरवाड द्वारा बतायी गयी जगह पर जैन श्रेष्ठी श्री चाम्पा की सलाह से नागेन्द्र गच्छाचार्य श्री शीलगुणसूरीजी ने वि. सं. ८०२ अक्षय तृतीया सोमवार के शुभदिन जैन विधि विधान से मंत्रोच्चारण के साथ इस नगर की स्थापना करके नगरी का नाम अणहिलपुर पाटण रखा । पराकर्मी जैन राजा श्री वनराज चावड़ा को श्रीदेवी श्राविका द्वारा राजतिलक करवाकर गाड़ी पर बिठाया गया ।

तत्पश्चात राजा वनराज ने अपने पूर्वजों की राजधानी के गाँव पंचासरा से श्री पार्श्वनाथ भगवान की इस अलौकिक प्रतिमा को विशाल जन समुदाय-वाध-ध्वनि के साथ लाकर यहाँ नवनिर्मित भव्य जिनालय में महामहोत्सव पूर्वक हर्षोल्लास के साथ श्री शीलगुणसूरीजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा कराई, जिससे यह तीर्थ पंचासरा पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात हुआ ।

बाद में चालुक्य (सोलंकी) वंशज कुमारपाल आदि भी जैन राजा हुए । इनके काल में यहाँ अनेकों मंदिर बनने का उल्लेख है । जैसे वनराआर, मूलराज वसहिका, रायविहार, त्रिभुवन विहार, कुमार विहार आदि भव्य मंदिर बने । इनके आलावा भी सैकड़ो मंदिर बने ।
वि. सं. १७२९ में श्री हर्षविजयजी द्वारा रचित चैत्य परिपाटी में ६५ विशाल मंदिर व ५०० देरासर बताये है । आज भी यहाँ सैकड़ों मंदिर विद्यमान है । कहा जाता है पाटण के पुन: उद्धार के समय इस मंदिर का भी उद्धार हुआ था । लेकिन वही प्राचीन प्रतिमा अभी भी विद्यमान है ।

श्री हेमचन्द्रचार्य, श्री अभयदेवसूरी, श्री मलयगिरी, श्री यशचन्द्र जी, श्री सोमप्रभाचार्य. राजकवि, श्रीपाल आदि विद्धानों से पाटण एक विद्या केंद्र बन चुका था । लगभग सारे गच्छों के जैन आचार्यों ने यहाँ पदार्पण करके धर्म प्रचार में भाग लिया था । देवसूरीजी को “वादी” की पदवी से विभूषित यहीं किया गया था । यहाँ के राजा भीमदेव के दण्डनायक विमलशाह व राजा सिद्धराज के दण्डनायक सज्जन शाह द्वारा आबू व गिरनार पर किये गये कार्य जग विख्यात है । वि.सं. १३७१ में शत्रुंजय का उद्धार करवाने वाले श्री समराशाह भी यहाँ के थे । ऐसे यहाँ के श्रेष्ठियों ने भी धर्म कार्य में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया उसकी जितनी प्रशंसा करे, कम है । पाटण के ज्ञान भण्डार भी विख्यात है । पाटण अपनी शूरता, सत्यता, पवित्रता व साहसिकता के लिए प्रसिद्ध है ।

पाटण में जैन साहित्य, कला व संस्कृति का खजाना है ।
साहित्य, कला और संस्कृति से प्रसिद्ध है । विक्रम युग 2017 में, इस मंदिर को आधार से बनाया गया था और मूर्ति को आचार्य श्री समुद्रसुरिश्वरजी द्वारा स्थापित की गई । बाद में आसपास के 51 छोटे बड़े मंदिर बनाया गया और मूर्तियों को विक्रम युग 2016 में स्थापित किया गया ।

*अन्य मंदिर -* इस मुख्य मंदिर के अलावा, 84 बड़े मंदिर और 134 छोटे मंदिर हैं इसके अलावा, हेमचंद्राचार्य का पुस्तकालय और कई जैन संस्थान हैं ।

*कला और मूर्तिकला के कार्य -* कई जैन मूर्तियों और कार्यों के साथ कई जैन मंदिर हैं । इस भव्य मंदिर की लंबाई 180 फीट है और इसकी चौड़ाई 90 फीट है । इस मंदिर की चौकियां, छतें, दीवारें, मंडप अद्भुत नक्काशी और कलात्मक ढंग से सजाए गए हैं ।

उपश्रेणियाँ भी हैं । यहाँ अद्भुत हैं और कई प्राचीन शास्त्र उपलब्ध हैं ।

*शास्त्र -* इस मंदिर का उल्लेख "चंद्रप्रभ चरित्र", "प्रभावाक" में किया गया है ।

*चारित्र -* पाटन चैत्यपरीपाति, 365 पार्श्वजिन नाममाला में, और श्री शंखेश्वर में पार्श्वनाथ छंद, कलिकुंड पार्श्वनाथ मंदिर में पंचाश्रव पार्श्वनाथ की एक मूर्ति है ।

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