મणिभद्र एक महान राजा थे जो जैन धर्म और इसके संदेशों के प्रति पूर्णतया समर्पित थे।इनके पास अपार संपत्ति थी तथा इन्हें 36 तरह के वाद्य यंत्रों का शौक था। इनकी असीम निष्ठा भक्ति से इन्हें क्षेत्रपाल घोषित कर दिया गया था।
मणिभद्र वीर, अपने पूर्व जनम में उज्जैन में जैन श्रावक माणेकशाह थे। ये एक निष्ठावान श्रावक थे जिनके गुरु महाराज हेमविमल सुरीजी थे।आगरा में महाराज हेमविमल सूरीजी के चातुर्मास के दौरान माणेकशाह अपने गुरु से पवित्रता पर दिए गए उपदेशों व शत्रुंजय की महत्ता से बहुत प्रभावित हुए।इसी प्रभाव के कारण, इन्होंने नवणुनि यात्रा करने के लिए पैदल शत्रुंजय जाने व रयान वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास से इसे संपन्न करने की कठिन तपस्या का संकल्प लिया।
गुरु के आशीर्वाद से, कार्तिकी पूनम के शुभ दिन माणेकशाह ने अपने संकल्प का शुभारम्भ किया।जब वे वर्तमान के मागरवाड़ा के निकट थे, डाकुओं के एक दल ने इन पर व इनके साथियों पर हमला कर दिया और लड़ने लगे।अपने साथियों की जान बचाने के लिए माणेकशाह ने अपने प्राण गवा दिए, इनका सर, धड़ व शरीर का निचला हिस्सा कटकर अलग हो गए ।माणेकशाह, जो नवकार मन्त्र जाप और शत्रुंजय की पवित्रता में पूरी तरह से लीन थे, इन्द्र मणिभद्रवीर देव के रूप में पुनः जन्म लिया।पुराणों के अनुसार लड़ते हुए माणेकशाह का शरीर तीन हिस्सों में कट कर तीन अलग दिशाओं में गिर गया था।पिंडी ( शरीर का निचला हिस्सा) गुजरात के मागरवाड़ा में गिरा, धड़ अर्थात शरीर गुजरात के अग्लोड में गिरा, और मस्तक अर्थात सर मध्य प्रदेश के उज्जैन में गिरा।मूलतया भारत में मणिभद्र वीर के ये तीन स्थान ही हैं – उज्जैन, अग्लोड एवम् मागरवाडा।
कहा जाता है की माणेकशाह के गुरु के शिष्यों को भैरवों की वजह से काफी परेशानी आ रही थीं।देववाणी अनुसार, उनके गुरु मागरवाड़ा आये व इन परेशानियों से पार पाने के लिए ध्यान में विराजित हुए।तब मणिभद्रवीर ने गुरु को भैरवों से उत्पन्न हुई परेशानियों को दूर करने के लिए अपने गुरु को सहायता करने का निश्चय किया।मणिभद्रवीर ने भैरवों को वश में किया।गुरु ने इनका सम्मान करते हुए महा सुद पंचमी को मागरवाड़ा में इनके पिंड को स्थापित कर मंदिर का निर्माण करवाया।
वर्तमान में बड़ी संख्या में भक्तगण मागरवाड़ा जाकर मणिभद्रवीर से अपनी समस्याओं के समाधान व अपनी परेशानियों को दूर करने में मदद के लिए प्रार्थना करते हैं।
ये भी कहा जाता है की अगर कोई भक्त मणिभद्रवीर देव के दर्शन व पूजा तीनो स्थानों पर एक ही दिन में अर्थात सूर्योदय से सूर्यास्त तक के बीच में करते हैं , अपने देव को अपनी भक्ति व प्रार्थनाएं समर्पित करने का ये सबसे उत्तम तरीका है।
मणिभद्र वीर देव की कुछ प्रमुख लक्षण
प्रतिमा पर इनका मुख अधिकतर शूकर ( वाराह ) के रूप में होता है।
इनकी प्रतिमाएँ चार भुजा और कई बार छह भुजाओं के साथ दिखाई देती हैं।
मणिभद्रवीर देव का वाहन ऐरावत है, सफ़ेद हाथी जिसकी एक से अधिक सूँड हैं।
विशेषकर इनकी पूजा अष्टमी, चौदस और दीवाली के दिन होती है।महीने की हर पाँचम को भक्तों की बड़ी संख्या यहाँ आकर इनकी पूजा करते हैं।इनके विशेष दिन रविवार व गुरूवार हैं और इनके भक्त जैन भोजन ( जमीकंद रहित ) पर रहकर भी इनके प्रति अपनी आस्था, सम्मान व्यक्त कर सकते हैं।
सुखड़ी और श्रीफल ( नारियल ) इनका पसंदीदा भोजन है व इन्हें प्रसाद के रूप में अर्पण किया जाता है।
महिलाएँ इनके दर्शन कर सकती हैं, प्रार्थनाएँ दे सकती हैं, इन्हें मान सकती हैं किन्तु इनकी पूजा या प्रतिमा पर केसर चन्दन लगाकर पूजा नहीं कर सकतीं।
मागरवाड़ा
गुजरात के मागरवाड़ा (पालनपुर जिला ) में मणिभद्रवीर दादा के शरीर के निचले हिस्से अर्थात पिंडी की प्रतिमा जी है।इनके भक्त बड़ी संख्या में अपनी पूजा अर्चना समर्पित करने व अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए यहाँ आते हैं।मणिभद्रवीर देव चमत्कारों की रचना के लिए जाने जाते हैं।कहा जाता है इनकी पूजा करने से धन वैभव मिलता है व बुरी शक्तियों से संरक्षण मिलता है।
अग्लोड
श्री अग्लोड जैन तीर्थ मागरवाड़ा से 80 किलोमीटर ( पौने दो घंटे ) की दुरी पर है।कहा जाता है की मणिभद्रवीर का धड़ अर्थात शरीर यहाँ गिरा था और यहाँ धड़ की ही पूजा की जाती है।भक्त अपनी पूजा मागरवाड़ा में इनके चरणों व शरीर के निचले हिस्से से शुरू करते हुए अग्लोड में शरीर की पूजा कर उज्जैन में सर की पूजा पूर्ण कर सकते हैं।
उज्जैन
उज्जैन में शिप्रा नदी तट पर मणिभद्रवीर दादा का पवित्र मंदिर स्थित है।इस मंदिर से एकदम जुड़ता हुआ मणिभद्रवीर का पुराना घर ( माणेकशाह का घर ) था इसीलिए मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर व उसके आसपास ही हुआ है।दादा मणिभद्रवीर का मस्तक अर्थात सर की पूजा यहाँ होती है।
विशेष : मणिभद्र वीर देव की साधना से परिणाम बहुत जल्दी मिलते हैं और जो साधक इनकी सच्ची साधना करते हैं उन्हें शीघ्र ही धन प्राप्ति होती है। इसका कारण है की यक्ष लोक के यक्ष यक्षिणी अदृश्य रूप में उन साधकों को सहयोग करते हैं जो मणिभद्र देव की साधना करते हैं क्योंकि मणिभद्र वीर देव को यक्ष सेना का सेनापति कहा जाता है व यक्ष लोक में इनका एक विशिष्ट स्थान है।
सलाह दी जाती है की मागरवाड़ा से पूजा करके सुबह तड़के ही 6:30 बजे रवाना होकर 8:30-9:00 बजे तक भक्त अग्लोड पहुँच जाएँ।मागरवाड़ा से अग्लोड 80 किलोमीटर की दुरी पर है।अग्लोड से पूजा करके ठीक 10:00 बजे सूर्यास्त से पूर्व उज्जैन पहुँचने के लिए रवाना हो जाना चाहिए ताकि दादा के मस्तक को पूज कर पूजा को पूर्ण किया जा सके।अग्लोड से उज्जैन पहुँचने के लिए 6-7 घंटे लगते हैं।यह दूरी 400 किलोमीटर की है।
चमत्कारी प्रभावशाली मन्त्र
|| ॐ असीआउसा नमः श्री मणिभद्र दिसतु मम: सदा सर्वकार्येषु सिद्धिं ||
जिनआज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तस्स मिच्छामी दुक्कड़म🙏
जय हो मणिभद्र वीर दादा की🙏
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