महोपाध्याय विनयविजयजी विरचित...."शांत सुधारस
🔹मम्मण सेठ के पास इतना अधिक धन था कि जिसके आगे श्रेणिक की समृद्धि भी नगण्य थी। परन्तु मम्मण लोभ की आग में डूबा हुआ था। जिस प्रकार खुजली का रोगी ज्यों-ज्यों खुजलाता है, त्यों-त्यों शान्ति के बजाय उसकी खाज बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार मम्मण के पास इतनी अधिक समृद्धि होते हुए भी वह सदा अतृप्त ही था। अधिकाधिक धन-समृद्धि को पाने के लिए वह तनतोड़ मेहनत करता था।
अमावस्या की घनघोर रात्रि में भयंकर मुसलाधार वर्षा हो रही थी। चारों ओर नगर में पानी भरा हुआ था और नदियों में भयंकर बाढ़ आई हुई थी। राजमार्ग पर न तो कोई मनुष्य ही दिखाई दे रहा था और न ही कोई पशु। परन्तु ऐसी भीषण बाढ़ में भी एकमात्र पुरुषार्थ करने वाला था तो एक मम्मण सेठ । एकमात्र लंगोटी पहनकर वह उस नदी की बाढ़ में कूद पड़ा था और नदी में बहती हुई लकड़ियों को खींच-खींचकर किनारे पर ला रहा था। कैसी दयनीय स्थिति थी ? वह मौत से खेल रहा था। परन्तु उसको उसी में आनन्द था, क्योंकि लोभ ने उसके हृदय पर अधिकार जमा रखा था। लोभ की बढ़ती हुई आग को शान्त करने के लिए वह सतत पुरुषार्थ कर रहा था, परन्तु उसे यह ख्याल नहीं कि *'लाभ से लोभ का शमन कभी सम्भव नहीं है।'* वस्तु की प्राप्ति से तो उलटा लोभ प्रबलतर होता है।
🔹याद आ जाती है उस लोभी फूलचन्द सेठ की बात।
सेठजी का अधिकांश व्यापार विदेशों में होता था। अनेक बार उन्हें समुद्री यात्राएँ करनी पड़ती थीं।
एक बार उनके किसी मित्र ने कहा- "सेठजी ! आपको अनेक बार समुद्री यात्राएँ करनी पड़ती हैं। समुद्री यात्रा कभी-कभी अत्यन्त आपत्ति का कारण बन सकती है। समुद्र में कई बार तुफान भी आते हैं, अतः अपने जीवन की सुरक्षा के लिए कम-से-कम आप तैरना तो सीख लीजिए।"
सेठ ने कहा- "तुम्हारी बात तो ठीक है, किन्तु मुझे फुर्सत कहाँ है कि मैं तैरना सीख सकूँ ?"
मित्र ने कहा- "फुर्सत तो नहीं है, किन्तु जीवन तो बचाना होगा न ?"
सेठ ने कहा- "कोई दूसरा उपाय बता दो।"
मित्र ने कहा- "अच्छा ! तो अपनी प्रत्येक समुद्र-यात्रा में अपने साथ खाली डिब्बे ले लिया करो और जब जहाज टूट जाय तो उनके सहारे समुद्र में कूद पड़ना जिससे आप बच सकोगे ।"
सेठ ने कहा- "यह अच्छी बात है।"
और सेठजी अपनी प्रत्येक यात्रा में अपने साथ खाली डिब्बे भी रखने लगे ।
एक बार सेठजी विदेश से समुद्री यान के द्वारा लौट रहे थे। मध्य मार्ग में ही समुद्र में तूफान आया और जहाज डगमगाने लगा।
कप्तान ने कहा-"अब परिस्थिति विकट है, जहाज को बचाना अशक्य है, जिसे तैरना आता हो, तैरकर अपनी जान बचा ले ।"
सेठजी ने यह बात सुनी। खाली डिब्बे पास में ही पड़े थे। साथ ही विदेश से लौट रहे थे अतः सोने के सिक्के भी बड़ी संख्या में साथ ही थे।
सेठ ने सोचा- "खाली डिब्बों को लेकर कूदना, इसके बजाय इनमें सोना मोहर भर लूँ, तो कितना अच्छा होगा ? मैं भी बच जाऊंगा और सारसार भी बच जाएगा।"
तत्काल सेठजी ने एक डिब्बे में चार सौ सोना मोहर भर ली और उसे उठाकर समुद्र में कूद पड़े ।
सेठजी तैरना तो जानते नहीं थे । बेचारे समुद्र के गहन तल में जा पहुँचे; लोभ ने उनके प्राण ले लिये ।
लोभी व्यक्ति की अधिकांशतः यही स्थिति होती है । वह कभी तृप्त होता ही नहीं है ।
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