इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ
श्री हेमचंद्राचार्य
*⭐ कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने कविता और व्याकरण, इतिहास और पुराण, योग और अध्यात्म, कोश और अंलकार, त्याग और तपश्चर्या, संयम और सदाचार, राजकल्याण और लोक कल्याण इत्यादि अनेकविध क्षेत्रों में सात दशक के दीर्घकाल तक अभूतपूर्व कार्य किया। साधुता और साहित्य के क्षेत्र में पिछले करीब हजार वर्ष तक उनके समकक्ष का महान व्यक्तित्व दृष्टिगत नहीं होता।*
*_⭐ धंधुका नगर में मोढ़ वणिक जाति के चाचिंग और पाहिणी के पुत्र के लक्षण पालने में से ही प्रकट हुए। शास्त्रों के ज्ञाता, सामुद्रिक लक्षणविद्या के जानकार और अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्यश्री देवेन्द्रसूरि उस समय धंधुका में बिराजमान थे। पाँच वर्ष के बालक चांग को लेकर माता पाहिणी श्री देवचंद्रसूरिजी को प्रणाम करने आई, तब श्री देवचंद्रसूरिजी दर्शनार्थ जिनालय की ओर गये थे। चांग स्वयं गुरु महाराज के पाट पर बैठ गया। दर्शन करके वापस आये श्री देवचंद्रसूरिजी ने यह दृश्य देखा। बालक की मुखाकृति तथा साहजिक अभिरुचि देखकर उन्होंने पाहिणी से कहा, " तेरा पुत्र भविष्य में महान साधु बनकर अनेक लोगों का कल्याण करेगा। "_*
*⭐ श्री देवचंद्रसूरि संघ के अग्रणियों को लेकर पाहिणी के घर पधारे। पाहिणी ने अपना महाभाग्य समझकर आनंदपूर्वक चांग को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। उन्हें मुनि सोमचंद्र नाम दिया गया। मुनि सोमचंद्र को किस प्रकार आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया इस विषय में एक दंतकथा प्रचलित है। पाटण के श्रीमंत श्रेष्ठी धनद सेठ ने मुनि को अपने यहाँ गोचरी के लिए पधारने की प्रार्थना की। मुनि सोमचंद्र वृद्ध मुनि वीरचंद्र सहित धनद सेठ के वहाँ गये, तब धनद सेठ की दरिद्रता देखकर सोमचंद्र को मुनि वीरचंद्र ने कहा कि इनके पास बहुत सुवर्ण मुद्राएँ है, परन्तु वे कोयले की तरह काली होने से उनको इसकी खबर नहीं हैं। इसी का नाम है कर्म की प्रबलता।*
*_⭐ धनद सेठ के कानों तक यह बात पहुँची, उन्होंने सोमचंद्र मुनि को उस ढेर पर बिठा दिया। कोयले जैसी काली सुवर्ण मुद्राएँ अचानक सोने की तरह जगमगाने लगी। तब धनद सेठ ने मुनि का आचार्य के रुप में 'हेमचंद्र ' नाम देने के लिए उनके गुरुदेव से कहा। हेमचंद्राचार्य की कीर्ति-कथाएँ गुजरात के राजा सिद्धराज तक पहुँची। एक बार सिद्धराज हाथी पर सवार होकर पाटण के बड़े बाजार से गुजर रहे थे, तब उनकी प्रार्थना के कारण हेमचंद्राचार्य ने एक श्लोक कहा। यह श्लोक सुनकर सिद्धराज प्रभावित हुए। मालवा-विजय के पश्चात् सिद्धराज समक्ष विद्वानों ने भोज के संस्कृत व्याकरण की प्रशंसा की। शत्रु राजा की प्रशंसा सिद्धराज को अच्छी नहीं लगी, किन्तु जाँच करने पर उसे पता चला कि उसके राज्य में सर्वत्र अभ्यासी भोज के व्याकरण का अध्ययन करते हैं। भोज के व्याकरण से बढ़कर व्याकरण लिखने की सिद्धराज की चुनौती उनके राज्य में एक भी पंडित या विद्वान स्वीकार नहीं पाये, परिणामतः सिद्धराज ने हेमचंद्राचार्य को विनंती की। उन्होंने लगभग एक वर्ष में सवा लाख श्लोक सहित प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को भी समाविष्ट करते हुए ' सिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासन ' नामक व्याकरण तैयार किया। हाथी पर अंबाडी ( हौदा ) में उसकी एक प्रत रखकर भारी धूमधामपूर्वक पाटण में शोभायात्रा निकाली गई। गुजरात में पहली बार सरस्वती का इतना विराट सम्मान हुआ। ' सिद्धहेम ' के संक्षिप्त नाम से परिचित यह व्याकरण राजदरबार में पढ़ा गया और भारत उपरांत नेपाल, श्रीलंका और ईरान जैसे सुदूर के देशों में उसे भेजा गया। तत्पश्चात् आज तक की लगभग आठ सौ वर्ष की अवधि में किसी भी विद्वान ने इस प्रकार के व्याकरण की रचना नहीं की। कुमारपाल गादीपति होगें, ऐसी भविष्यवाणी हेमचंद्राचार्य ने की थी, परन्तु कुमारपाल के प्रति वैरभाव के कारण सिद्धराज ने उन्हें मरवा देने के अनेक प्रयत्न किये। एक बार खंभात में गुप्त वेश में कुमारपाल हेमचंद्राचार्य से मिलने गये थे। सिपाहियों के आने पर कुमारपाल को छुपा दिया गया था। गुरु की भावनानुसार हेमचंद्राचार्य ने अनेक ग्रंथों की रचना की। सम्राट कुमारपाल के समय में अमारि घोषणा करके अहिंसा का प्रवर्तन किया। 84 वर्ष की सुदीर्घ जीवन यात्रा के पश्चात् विक्रम संवत् 1229 में पाटण में हेमचंद्राचार्य का कालधर्म ( स्वर्गारोहण) हुआ।_*
~~~~~~~~~~~~~~~~~~*साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा*
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*जैनम् जयति शासनम्*
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