*🌹 गंगामा 🌹*
*गुजरात की महाजन परम्परा का ओजस्वी इतिहास हैं और उसमें भी अहमदाबाद के नगरसेठ की तो भव्य एवं उज्जवल परम्परा दृष्टिगत होती हैं । जिनशासन की कीर्तिगाथा का यह कीर्तिमान प्रकरण हैं । सेठ शांतिदास की चतुराई , उदारता एवं धर्मपरायणता उनके वंशजों में उतर आयी थी । केवल अकेले नगरसेठ ही नहीं , अपितु हरकुंवर सेठानी , गंगामा , मोहिनाबा समान परिवार के नारीरत्नों ने धर्म तथा समाज में अपना अग्रगण्य प्रभाव प्रसारित किया था । सेठ दलपतभाई की पत्नी गंगाबहन अनेक प्रकार के धर्मकार्यो में सदा ही आगे रहती थी । विक्रम संवत् 1921 में सेठ श्री दलपतभाई ने तीर्थराज श्री शत्रुंजय का छ'री पालित यात्रासंघ निकाला था । पूजनीय मूलचंद्रजी महाराज इस संघ के साथ थे और उस समय पूज्य वृद्धिचंद्रजी महाराज पालिताणा से भावनगर पधारे थे । इस संघ में गंगामा ने साधु-साध्वियों की वैयावच्च में और श्रावक-श्राविकाओं की साधर्मिक भक्ति में अपार धन तो खर्च किया ही , परंतु उसके पीछे अपने आपको भी घिस डाला । चारों प्रकार के संघों की गरिमा वहन करती हुई गंगामा धर्ममाता समान थी । प्रत्येक को उनसे माता की ममता , वात्सल्य एवं सेवा प्राप्त होती और इसलिए तो वे गंगामा के रुप में पहचानी जाती थी । उनकी उदारता देखकर सबको आबू के ऊपर अक्षयकीर्ति सदृश देवालय निर्मित करनेवाली अनुपमादेवी का स्मरण होता था । विक्रम संवत् 1967 की कार्तिक वदि 9 से मार्गशीर्ष वदि 10 के रविवार तक अहमदाबाद में चारों संघों को अहमदाबाद की नगर यात्रा करवाई । यह धर्मप्रसंग इतना विरल था कि मुनिराज श्री रत्नविजयजी महाराज ने इस धर्मयात्रा का वर्णन करते हुए भाववाही स्तवन रचा था ।*
*एक समय गंगामा आचार्यश्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज साहब का व्याख्यान सुन रही थी । इस समय शासनसम्राट आचार्य ने अपनी सिंहगर्जनाभरी वाणी में तीर्थरक्षा के महत्व सम्बन्ध में विस्तृत विवरण किया । गंगामा के चित्त में इससे उल्कापात मच गया । उस समय परम पवित्र समेतशिखरजी पहाड़ पर अंग्रेज शिकारीयों और सैलानी प्रवासियों के लिए एक गेस्ट हाउस बाँध रहे थे ।*
*गंगामा का चित्त विचारों में खो गया ।* *अनेक तीर्थकरों एवं मुनिगणों की तपोभूमि और निर्वाणभूमि का*
*ऐसा अपमान । कितनी पावन है यह तीर्थभूमि कि जहाँ से वीस तीर्थकर परमात्मा एवं अनेक मुनिगण तपश्चर्या करते हुए मोक्षपथ पर सिधारे हैं ।* *ऐसी पावन भूमि पर अंग्रेज सैलानियों के लिए मौज-शौक , शिकार , आनंदप्रमोद , मांसाहार , मदिरापान और अभक्ष्य भोजन का अताथिगृह ? गंगामा मन-ही-मन प्रभु पार्श्वनाथ की प्रार्थना करने लगी । श्री समेतशिखर पर्वत भी श्री पार्श्वनाथ पर्वत के रुप में विख्यात था । इस आपत्ति में से मुक्त होने के लिए गंगामा पार्श्वनाथ भगवान का स्तवन गाने लगी ।*
*गंगामा को अपने वीर पूर्वजों का स्मरण हुआ । सेठ शांतिदास ने तीर्थरक्षा के लिए धर्म-जनूनी ऐसे औरंगजेब को झुकाया था । गंगामा के पुत्र लालभाई भोजन के लिए आये तब गंगामा ने उनकी थाली में चूड़ियाँ रखीं । लालभाई इसका अर्थ समझ नहीं सके , तब गंगामा ने कहा ,*
*" आचार्यश्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज साहिब तीर्थरक्षा के लिए व्यथित हैं , फिर भी तुम नगरसेठ होते हुए कुछ भी नहीं करते हो । ऐसे निष्क्रिय ही रहने वाले हो , तो ये चूड़ियाँ पहन लो और मुझे अपनी सत्ता दे दो । तीर्थरक्षा के लिए मैं अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हूँ । "*
*माता के पुण्यप्रकोप से लालभाई में जोश उत्पन्न हुआ । पुत्र के वीरत्व को माता ने जाग्रत किया । उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रचंड़ विरोध प्रकट किया और गेस्ट हाउस का निर्माण-कार्य बंद रखवाया ।*
*गंगामा साधु-साध्वियों का बहुत ही आदर करती थीं । साथ-ही-साथ पाँच महाव्रतों के बारें में साधु-साध्वी समुदाय में शिथिलता आ न जाय , इसकी कड़ी निगरानी भी रखती थीं । कहीं भी कोई क्षति या अपूर्णता देखें कि तुर्त ही वात्सल्यमयी माता की तरह ध्यान खींचे । अपने परिवार में भी धर्ममर्यादा बनी रहे इसलिए सदैव जाग्रत रहतीं और अभक्ष्य भक्षण न हो इसकी सावधानी रखतीं । ऐसी थी धर्ममाता समान गंगामा ।*
*साभार 🙏🌹🙏*
*जिनशासन की कीर्तिगाथा*
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