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*इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ*
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🌷🌷 *श्री धर्मघोषसूरि* 🌷🌷
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♦️ *संघ की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो या फिर अन्य कोई शासन की प्रभावकता दर्शानें की चुनौती आये, तब साधुता की विरल आत्मशक्ति प्रकट होती है। इस आत्मशक्ति का उद्देश्य धर्म की देख-भाल करना होता है। विक्रम की चौदहवी शती में आचार्यश्री धर्मघोषसूरिजी ने कुटिलता का उच्छेदन करने के लिए और उपद्रवियों को मात देने के लिए स्वयं अपना मंत्रप्रभाव प्रकट किया था।*
♦️ *_आचार्यश्री धर्मघोषसूरीश्वरजी का जीवन जितना रोमांचपूर्ण है उतना ही चमत्कारिक है। पूर्वावस्था के वीरधवल का विवाह-मंडप की चौरी में कोई निमित्त खड़ा होते ही उनका हृदय राग में से विराग की ओर मुड़ गया। सांसारिक बन्धनों की उस क्षण पर ही सारे भौतिक सुख तजकर वीरधवल ने वैराग्य का धवल वेश धारण कर लिया। तपागच्छपति देवेन्द्रसूरिजी से वीरधवल ने अपने भाई भीमदेव के साथ दीक्षा अंगीकार की। यह घटना विक्रम संवत् 1302 में विजापुर में घटी। वीरधवल और भीमदेव ये दोनों सेठ जिनचंद्र पल्लीवाल के पुत्र थे। उनकी पन्यास एवं उपाध्याय पदवी के समय केसरवृष्टि हुई थी और आचार्य पदवी प्राप्त होने के बाद वे आचार्यश्री धर्मघोषसूरि के नाम से जाने गये।_*
♦️ *धर्मघोषसूरि ने श्रीसंघ की बिनती के कारण 'समुद्रस्तोत्र ' की रचना की। सौराष्ट्र के सागरतट पर उन्होंने उस स्तोत्र का पाठ करते ही समुद्र में ज्वार आया और समुद्र ने धर्मघोषसूरि के चरणों में रत्नों की राशि समर्पित की। समुद्र फिर शांत हो गया।*
♦️ *_इसी प्रकार उस समय कपर्दी यक्ष उपद्रव मचाता था, उसे हृदयस्पर्शी उपदेश दिया। उसके हृदय के घने तमस को तेज में पलट दिया। परिणामतः कपर्दी यक्ष विपरीत मार्ग छोड़कर सदमार्ग पर मुड़ गया। इस प्रकार अपने धर्मतेज से अधर्म और अनाचार का उन्होंने नाश किया।_*
♦️ *अपने जन्मस्थल विजापुर में कुछेक स्त्रियों ने उनके व्याख्यान की प्रभावकता नष्ट करने के लिए उन पर वशीकरण किया था। शुभ के समक्ष अशुभ का कितना जोर ? आचार्यश्री ने मंत्रशक्ति से उन स्त्रियों को स्थिर कर दिया। आखिर उन स्त्रियों ने स्वीकार करके क्षमायाचना करते ही उन्हें मुक्त किया था। उज्जैनी का एक योगी अनेक उपद्रव करता था। उसमें भी जैन साधुओं का तो वह इतना द्वेषी था कि किसी जैन साधु को तो नगरी में प्रवेश करने ही नहीं देता। यदि गलती से कोई जैन साधु आ भी जाता, तो अपने मंत्रबल से वह योगी ऐसा उपद्रव जगाता कि उसे भागना ही पड़ता। एक बार आचार्य धर्मघोषसूरि उज्जैनी में पधारे, तब उस योगी ने रात को उपाश्रय में सैकड़ो सर्पो, बिच्छुओं एवं चींटियों का प्रकोप सर्जित किया, परन्तु सूरिजी ने वस्त्र बँधा हुआ घड़ा लिया और उस पर हाथ रखकर जाप करते ही उस योगी के अंग में लाखों बिच्छुओं के दंश की जलन होने लगी। उपाश्रय में आकर उसने क्षमा माँगी। आचार्य धर्मघोषसूरिजी ने ग्रंथरचनाएँ की और ज्ञानभंडार बनवाये।*
♦️ *_आचार्यश्री धर्मघोषसूरि जैन श्रावकों में अमूल्य मोती की तरह चमकते हुए पेथडशा के गुरु थे। आचार्यश्री धर्मघोषसूरि ने ब्राहृणों, माहेश्वरियों, वैश्यों एवं क्षत्रियों को उपदेश दिया। अहिंसा की भावना फैलाई और उन्हें जैनधर्मी बनाया।_*
♦️ *आचार्यश्री व्याकरण के पारंगत ( पारगामी ) तथा न्यायशास्त्र के निष्णात थे। सूत्र-अर्थ के समर्थ व्याख्याता थे। उनकी स्मरणशक्ति असाधारण थी। वे मात्र छः घड़ी में पाँच सौ श्लोकों का मुखपाठ कर सकते थे। उन्होंने नागोल, शाकंभरी और अजमेर की राजसभाओं में धर्मप्रवचन देकर राजाओं तथा प्रजा को प्रभावित किया था। ये राजा आचार्यश्री धर्मघोषसूरि को अपने गुरुदेव मानते थे। उनके उपदेश से अजमेर के राजा विग्रहराज ( वीशलदेव) जैनधर्मी बने थे और अपने राज्य में ग्यारस ( एकादशी ) आदि तिथियों में अमारि ( प्राणीहत्याबंधी ) का पालन करवाया था। इसके अतिरिक्त उनकी प्रेरणा से राजाओं ने जिनालयों का निर्माण किया था।*
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*साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा*
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*जैनम् जयति शासनम्*
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