Chandraprabhu Swami

*श्री चंद्रप्रभु स्वामी भगवान*
*च्यवन कल्याणक* 
*फागण वद पंचमी*
*।। चंद्रपुरी तीर्थाधिपति श्री चंद्रप्रभु स्वामीने ने नम:।।*

                *श्री चंद्रप्रभु स्वामी भगवान के तीन भव हुए थे । पूर्व भव में परमात्मा का आत्मा वैजयंत नाम के विमान में था वहाँ पर तैंतीस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर मतिज्ञान , श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के साथ ईक्ष्वाकु वंश के कश्यप गोत्र के पूर्व देश की चंद्रपुरी नगरी के राजा महासेन की लक्ष्मणादेवी राणी की कुक्षी में फागण वद पँचमी के दिन वृश्चिक राशि और अनुराधा नक्षत्र में मध्यरात्रि में च्यवन हुआ । उस समय माता ने चौदह स्वप्न देखे ।*

*।। चैत्यवंदन ।।*

*लक्ष्मणा माता जनमियो, महसेन जस ताय;*
*उड्डपति लँछन दीपतो, चंद्रपुरी नो राय।।१*
*दश लाख पुरव आउखु, ढोढ़सौ धनुषनि देह;*
*सुरनरपति सेवा करे, धरता अति स्नेह।।२*
*चन्द्रप्रभ जिन आठमा ये, उत्तम पद दातार;*
*पद्मविजय कहे प्रणमीये, प्रभु मुझ पार उतार।।३*

*।। स्तवन ।।*

*राग : केदारो तथा गोडी – ‘‘कुमारी रोवे, आक्रंद करे, मु कोई मुकावे…’’ ए* *देशी*
*देखण दे रे, सखी!*
*मुने देखण दे, चंद्रप्रभ मुखचंद,*
*उपशमरसनो कंद, सखी.*
*गत कलि-मल-दु:खदंद..*
*…सखी.१*

*सुहम निगोदे न देखीओ, सखी.*
*बादर अतिहि विसेस;*
*पुढवी आउ न लेखियो, सखी.*
*तेउ-वाउ न लेस.*
*….सखी.२*

*वनस्पति अति घण दिहा, सखी.*
*दीठो नहीं य दीदार;*
*बि-ति-चउरिंदी जल लीहा, सखी.*
*गतसन्नि पण धार.*
*…सखी.३*

*सुर तिरी निरय निवासमां, सखी.*
*मनुज अनारज साथ,*
*अपजत्ता प्रतिभासमां, सखी.*
*चतुर न चढीओ हाथ.*
*…सखी.४*

*इम अनेक थळ जाणीए, सखी.*
*दरिसण विणु जिनदेव,*
*आगमथी मत आणीए, सखी.*
*कीजे निरमळ सेव.*
*…सखी.५*

*निरमळ साधु भगति लही, सखी.*
*योग-अवचंक होय;*
*क्रिया-अवंचक तिम सही, सखी.*
*फळ-अवंचक जोय.*
*…सखी.६*

*प्रेरक अवसर जिनवरू, सखी.*
*मोहनीय क्षय जाय,*
*कामितपूरण सुरतरू, सखी.*
*’आनंदघन’ प्रभु पाय.*
*…सखी.७*

*अर्थ*
*गाथा १:-*

*सम्यगद्ष्टी आत्मा समुति सखी से कहती है, हे सखी! शांतरस के मूलकारक, कलह, मैल, दुःख एवं दवदवातीत श्री चंद्रप्रभ जिनेश्वर के मुखरुप चंद्रका मुझे अवलोकन करने दो, करने दो|*

*गाथा २:-*

*सूक्ष्म निगोदमें तथा बादर निगोह में मैंने उस प्रभु को देखा नही| पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय एवं वायुकाय में मुझे प्रभु का लेशमात्र अनुभव नहीं हुआ है| इसलिए हे सखी अब मुझे मेरे प्रभु के दर्शन करने दो, करने दो, अतृप्त होनेतक मुझे प्रभु के दर्शन करने दो|*

*गाथा ३:-*

*मैं जब वनस्पति काय में बसती थी, तब भी प्रभुजी के मनमोहक दर्शन केह अनुभव से वंचित रहता थी| बेइन्द्रीय, तेइन्द्रीय, चऊरिन्द्रीय, असूंती, पंचेद्रिय वगैरे अवस्थाओं में उसी प्रकार गर्भज, जलचर अवस्थाओं में आपके दर्शन कर नहीं पाया था| इसलिये हे सखी! अब तो मुखे अपने स्वामी के दर्शन करने दो| अनंतकाल बीतने के पश्‍चात मुझे इस प्रभु के दर्शन हुए है| मुझे हृदय भरके दर्शन करने दो|*
*गाथा ४:-*

*देव-तिर्थच एवं नाटकी अवस्थाओं में एवं अनार्य मनुष्यों के टोलीओं में भी मैंने कितना समय व्यतीत किया है, परंतु वहां भी मुझे कभी प्रभु का स्मरण नहीं हुआ है, अपार्यप्त अवस्थामें उसी प्रकार प्रतिभासरुप पर्याप्त अवस्थामें भी वह चतुर कभी मेरे हाथ में नही आया मैं उन्हे देख ही नहीं सका| इसलिए हे सखी अब तो मुखे इस प्रभु के दिल खोल के दर्शन करने दो, उनके दर्शन के बिना में अब जी नहीं पाऊंगी|*

*गाथा ५:-*

*श्री जिनेश्वर देव के दर्शन के वंचित मेरा अनंत स्थानों को आवागमन हुआ है, यह विचार आगमशास्रो में ज्ञात हुआ है| अब तो प्रभु को निर्मल सेवा करने दो! हे सखी अब तो मुझे प्रभु के वदनचंद्र के दर्शन करने दो|*

*गाथा ६:-*

*सम्यग् दर्शन की प्राप्ति हुई| अब क्रमानुसार पवित्र साधु एवं उनकी भक्ति का अवसर प्राप्त होगा| जिससे महात्मा योगवंचक हो जाएंगे, उससे क्रियावंचक बनगें और क्या निश्चित रूप से कलावंचक नही बनेंगे?*

*गाथा ७:-*

*जब योग्य अवसर आयेगा तब हे सखी श्री जिनेश्वर देव प्रेरणा करेंगे, फिर मोहनीय कर्मोका क्षय हो जायेगा, क्योंकि आनंद के भंडार प्रभुजी के चरण कल्पवृक्ष की तरह इच्छितपूर्ति करते हैं|*

*।। थोय ।।* 

 *सेवे सुरवर वृंदा, जास चरणारविंदा,*
*अट्टम जिन चन्दा, चंद वर्णे सोहंदा।*
*महसेन नृप नंदा, कापता दुःख दन्दा,*
*लंछन मिष चंदा, पाय मानूँ सेविंदा।।*

*कल्याणक तप की आराधना विधि*

*तप - एकासणुं*

*निचे प्रकार से विधि करे*

*विधि - १२ लोगस्स का काउसगग, १२* *साथिया, उसके उपर १२ फळ और* *१२ नैवेध रखे १२ खमासमणा देवे*

*खमासमण देने के लिए दुहा* 

*“परम पंच परमेष्ठीमां, परमेश्वर भगवान ;*
*चार निक्षेपे ध्याईए, नमो नमो श्री जिनभाण.*

*जाप - २० नवकारवाळी नीचे प्रमाण से गिने*

*थोय*

*सेवे सुरवर वृंदा, जास चरणारविंदा,*
*अट्टम जिन चन्दा, चंद वर्णे सोहंदा।*
*महसेन नृप नंदा, कापता दुःख दन्दा,*
*लंछन मिष चंदा, पाय मानूँ सेविंदा।।*

*जाप मंत्र*

*ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभु स्वामी परमेष्टिने नम:*

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