शील तो सुदर्शन सेठ का । सदाचारी जीवन बितानेवाले सुदर्शन
सेठ के जीवन में शील की कड़ी अग्निपरीक्षा हुई । अंग देश की चंपापुरी नगरी के राजा
दधिवाहन की रानी अभया ने सेठ सुदर्शन का गर्व उतारने का निर्णय किया । रानी अभया
यह समझती थी कि यदि वह अपने अनुपम देहसौन्दर्य के कारण कामातुर होकर किसीका हाथ
पकड़ ले तो पत्थर भी पिघल जाये , तो फिर पुरुष को
च्युत करने में क्या मुश्किल हो सकती है । कठोर वनवासियों एवं तपस्वियों ने नारी
के मोह के कारण वन तथा तप को तिलांजलि दी , तो यह मृद मन का गृहस्थ सुदर्शन फिर किस बिसात में ?
पुरोहित की पत्नी कपिला सेठ सुदर्शन पर मोहित हो गई थी , परंतु सेठ सुदर्शन उसकी मोहजाल में फँसे नहीं , अतः इसने रानी अभया के इस गर्व में घमंड़ का घी आग का कार्य
किया ।
पर्व के दिन अपने निवास-स्थान में सुदर्शन कायोत्सर्ग करके
खड़े हुए थे , तब अभया रानी के सेवक सुदर्शन
को पकड़कर महल में ले आये । रानी अभया ने उन्हें वश में में करने के लिए साम , दाम , दंड और भेद को
प्रयुक्त कर देखा । उन्हें अंगस्पर्श करने का प्रयत्न किया , परंतु सेठ सुदर्शन ने तो प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक आई हुई
विपत्ति दूर न हों , तब तक कायोत्सर्ग में ही रहूँगा
और कायोत्सर्ग रहेगा तब तक अनशन जारी रखूँगा । रानी अभया के तमाम प्रयास नाकामियाब
रहने पर वह अधिक आपे से बाहर हुई और उसने सुदर्शन को कलंकित करने के लिए स्वयं
अपने शरीर पर नोच-खरोंच कर सेठ सुदर्शन पर बलात्कार का आक्षेप रखा । राजा दधिवाहन
सुदर्शन के शील-धर्म को जानते थे , किन्तु बार-बार पूछने पर भी सुदरूशन ने चुप्पी साध रखी । उन्होंने सोचा कि यदि
मैं सच्ची बात कहूँगा तो रानी की क्या दशा होगी ? यदि सच बोलते है तो रानी के सिर पर महासंकट टूटता हैं और उसे सूली पर चढ़ना
पड़े । इसकी अपेक्षा मौन रहकर अपने आप पर मुसीबत ले लेना अधिक मुनासिब माना ।
राजा ने सुदर्शन को सूली पर चढ़ाने की सजा दी । सुदर्शन के
मुख पर कालिख चुपड़कर , शरीर पर लाल गेरु का लेप किया , गले में चित्र -विचित्र मालाएँ पहनाई और गधे पर बिठाया ।सिर
पर सूप का छत्र रखा और आगे फूटा हुआ ढोल पीटते-पीटते सुदर्शन को नगर में घूमाया
गया । सुदर्शन तो ध्यान में तथा प्रभुस्मरण में डूबे हुए थे । नगरजनों का सेठ
सुदर्शन के शील सम्बन्धी विश्वास डिगने लगा , परंतु उनकी पत्नी सती मनोरमा को अपने पति की पवित्रता में पूर्ण आस्था थी ।
उसे विश्वास था कि उसके सदाचारी पति कभी ऐसा दुष्कृत्य नहीं कर सकते ।
गहन विचार करते हुए सती मनोरमा को ज्ञात हुआ कि यह कोई
पूर्वजन्म के अशुभ कर्म का फल उदित हुआ हो ऐसा लगता है । आपत्ति-काल में
धर्मश्रद्धा ही सच्चा सहारा हैं । सती मनोरमा प्रभुभक्ति में बहुत गहरे उतर गई । उनके
घर के आगे हो-हल्ला मच गया । सेठ सुदर्शन को नगर में घुमाते-घुमाते उनके घर के
समक्ष ले आये थे । चारों तरफ शोरगुल मच रहा था । ढोल पीटा जा रहा था । उसके आगे
राजसेवक चल रहे थे । वे घोषणा करते थे कि इस सुदर्शन ने रानीवास में गंभीर गुनाह
किया हैं । इसकी सजा के रुप में उसका खुलेआम वध किया जायेगा ।
सेठ सुदर्शन ध्यानमग्न थे । सती मनोरमा प्रभुमग्न थी ।
मनोरमा का दृढ़ विश्वास था कि यह यकायक आई हुई आफत अवश्य दूर होगी । अग्निपरीक्षा
में से अपने पति पार उतरेंगे । सती मनोरमा ने मन-ही-मन दृढ़ निश्चय किया कि जब तक
अपने पति पर आई हुई यह आफत दूर नहीं होगी , तब तक कायोत्सर्ग में रहूँगी और अनशन रखूँगी । सती मनोरमा की भक्ति देखकर
शासनदेवी प्रकट हुई । उन्होंने सती की श्रद्धा एवं संकल्प देखकर अपनी प्रसन्नता
प्रकट की । शासनदेवी ने कहा कि उसके पति इस संकट से पूर्णरुपेण पार उतरेंगे और उन
पर किया गया आक्षेप दूर होगा ।
राजसेवक सुदर्शन सेठ को सूली पर ले गये । उन्हें सूली पर
चढ़ाते हुए सूली टूट गई । सूली के स्थान पर सोने का सिंहासन दृष्टिगोचर हुआ ।
जनसमूह ने सुदर्शन सेठ का जयजयकार किया । अंत में रानी का छल-प्रपंच उजागर हो गया
। राजा ने अपनी भूल के बदले क्षमा-याचना की । दोनों ने एकदूसरें की क्षमा माँगी ।
महासती मनोरमा की दृढ़ प्रतिज्ञा और सुदर्शन सेठ का पवित्र शील अंत में विजयी हुए
।
साभार
जिनशासन की कीर्तिगाथा
जैनम जयति शासनम
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