इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ
मोतीशा सेठ
जैन धर्म की एक निराली विशेषता खोंडे या अपाहिज बने हुए मूक पशुओं के लिए
पिंजरापोल ( अशक्त-पंगु मवेशियों की धर्मार्थ पशुशाला-निवाससस्थान ) बनाने की हैं
। जीवदया के इस धर्म-कार्य में मूक-अबोल प्राणी की वेदना को जानना, समझना एवं उसका निवारण करना रहता है । पिंजरापोल संस्था को
देखते हुए अपने आप ही मोतीशा सेठ के जीवन की महत्ता का स्मरण जाग उठता है।
खंभात के सेठ
अमीचंद के पुत्र मोतीचंद का जन्म विक्रम संवत् 1838 में हुआ । मोतीचंद सेठ ने अपनी कुशाग्र बुद्धि, व्यापारी साहस एवं गणनापूर्ण दीर्घदृष्टि से कुशल व्यापारी तथा होशियार दलाल
के रुप में धंधे का विकास किया । पिता का कर्ज चुकाने का कानूनन उत्तरदायित्व नहीं
था , तथापि एक-एक पाई का पिता का
कर्ज चुकाया । सिर्फ पाँच वर्ष के व्यापार में तो वे लखपति बन गये । समुद्री सफर
की सुगमता के लिए पाँच सौ से छः सौ टन के तीन जहाज खरीद लिये । मोतीशा सेठ जो कोई
कार्य करना निश्चित करें , उसे सिद्ध करने के लिए रात-दिन
पुरुषार्थ करते। एक दशक में तो उन्होंने देश-विदेश में -व्यापार करते हुए चालीस
जहाजों के विशाल काफिले को महासागर में गतिशील कर दिया । बहरीन से चीन तक उनका
व्यापार चलता था । समुद्र में जहाजों द्वारा व्यापार करने के क्षेत्र में
अंग्रेजों की इजाराशाही तोड़नेवाले प्रथम हिंदी या भारतीय मोतीशा सेठ महासागर के
महारथी-महासाहसी बने । भारत के बंदरगाहों के अतिरिक्त अरबस्तान , जावा, सुमात्रा , चीन , लंका इत्यादि देशों
में उनका नाम प्रसिद्ध था । संपत्ति-प्राप्ति के साथ-ही-साथ सदाव्रतों की दानगंगा
भी प्रवाहित होने लगी । मुम्बई में कुत्तों की क्रूरता से हत्या होती थी ।
अंग्रेजो के बहरे कानों को कुत्तों की करुणाभरी चीखें सुनाई नहीं पड़ती थी ।
जगह-जगह कुत्तों के शवों के ढेर लग जाते । इस समय मोतीशा सेठ ने गवर्नर से मिलकर
यह क्रूरता दूर की । दूसरी ओर उन्होंने सोचा कि ऐसे अपंग या पंगू तथा भटकते पशुओं
के योग्य पालन के लिए पिंजरापोल की आवश्यकता है । संघ में सर्वमान्य ऐसे मोतीशा
सेठ ने पिंजरापोल संस्था की नींव डाली । हिन्दुओं , पारसियों और वहोरा कौम ( व्यापारी शीया मुस्लिमों की जाति , जो पहले बनिया-ब्राहृण थे , पर बैगड़ा जैसे क्रूर शासकों ने उनका धर्म-परिवर्तन समूह में करवाया था ) ने
सहयोग दिया । कुत्तों की हत्या में से पिंजरापोल का विचार आया , परंतु उसमें गायों , बैलों , भेड़ों , बकरियों , चूहों , कबूतरों इत्यादि जीवों के लिए भी सुविधा हुई ।
मोतीशा सेठ श्री शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करने बार-बार जाते । व्यापार की
कामियाबी में इसे कारणभूत मानते । मुम्बई के लोगों को शत्रुंजय तीर्थयात्रा का लाभ
प्राप्त हो , इसलिए भायखला में विस्तृत जगह
लेकर विक्रम संवत् 1885 में आदीश्वर भगवान का देरासर
-जैन मंदिर बनवाया और रायणपगलाँ , सूरजकुंड आदि का
निर्माण करवाकर शत्रुंजय के आदीश्वर शिखर जैसी रचना करवाई । मोतीशा सेठ का लाखों
का माल-सामान लेकर एक जहाज चीन के सफर पर गया था । सेठ को यह चिंता थी कि यदि जहाज
के माल-सामान को कुछ होगा , तो बड़ी विकट आपत्ति आयेगी ।
अपनी चिंता उन्होंने परमात्मा को सौंप दी । जहाज वापस लौट आये तो उसमें से प्राप्त
मुनाफे की रकम से श्री शत्रुंजय महातीर्थ धाम पर देवविमान जैसा भव्य प्रासाद
बनवाने का महासंकल्प किया सद्भाग्य से जहाज लौट आया और मोतीशा सेठ ने श्री
शत्रुंजय तीर्थ पर जिनालयों के निर्माण के लिए महुवा के कुशल स्थपित रामजी
सूत्रधार को बुलवाया । उसने शत्रुंजय पर्वत के दो ऊँचे स्थानों के बीच की घाटी के
दो सौ फूट जितने गहरे गड्ढे को पसंद किया । उसमे कुंतासर तालाब भी था । ऐसे स्थान
पर जिनालयों का निर्माण भला कैसे किया जायेगा ? परंतु मोतीशा सेठ हार मानने में विश्वास नहीं करते थे । उन्होंने यह भगीरथ
कार्य शुरु करवाया । मकराणा से सफेद संगमरमर मँगवाया और तीन वर्ष में पातालनींव
भर-पाटकर विशाल मैदान तैयार हो गया । विक्रम संवत् 1888 में समूची बरसात ही नहीं हुई , तब एक हंडे ( धातु के ) चार आने निश्चित करके शत्रुंजय नदी में से पानी
मँगवाया । 1100 कारीगर और 3000 मजदूर काम पर जूटे । अस्सी हजार रुपयों के रस्से इस्तेमाल
हुए । एक के बाद एक वर्ष गुजरने लगे । मुम्बई के शाहसौदागर मोतीशा तीन शिखर , तीन गर्भागार ( मंदिर के ) और तीन मंजिलों के देवविमान सदृश
मुख्य देरासर रुप अपनी भावना को आकार लेते देखकर प्रसन्न हो रहे थे । मोतीशा सेठ
की तबीयत लड़खड़ा रही थी । इसलिए उन्होंने एक के बाद एक काम परिपूर्ण करना प्रारंभ
किया । प्रतिष्ठा का मुहूर्त दूर था । विक्रम संवत् 1892 की भादों सुद प्रथमा के दिन 54 वर्ष की आयु में मोतीशा सेठ का देहावसान हुआ । ये पर्युषण पर्व के पवित्र दिन
थे । महावीर जन्मवाचन चल रहा था और इस साहसिक सेठ का प्राणपंखी देह का घोंसला
त्यागकर चला गया । सेठजी की पत्नी दिवालीबाई ने मोतीशा सेठ की उस भावना को
परिपूर्ण किया । पालिताणा में 86,000 के खर्च से विशाल
धर्मशाला बनवाई । इसका यही महत्व है कि शत्रुंजय की यात्रा पर जो कोई संघ आये उसके संघपति का प्रवेशतिलक सेठ
मोतीशा के नाम से किया जाता है ।
साभार--जिनशासन की कीर्तिगाथा
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