Bhiladiyaji Parswnath

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*🛕108 श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी तीर्थ🛕*
 *क्रमांक 2️⃣5️⃣*
 *🛕श्री भिलड़ीया पार्श्वनाथ प्रभु 🛕*  
*ऐतिहासिकता -* 13 वीं - 14 वीं शताब्दी के कई पत्थर के शिलालेख हैं जो संकेत देते हैं कि भिलाड़ीया बहुत प्राचीन और समृद्ध शहर था । प्राचीन काल में, यह सुंदर और समृद्ध शहर था ।
एक किवदंती ये भी है कि
भीलड़ीया ब्राह्मण अनादा ने इस गांव को विक्रम युग के वर्ष 1872 में बसाया और इसलिए यह गाँव को भिलड़ी के नाम से जाना जाने लगा ।

जैन शास्त्रों में इसका प्राचीन नाम भीमपल्ली होने का उल्लेख आता है । परन्तु, इसका इतिहास मिलना कठिन-सा है । प्रभु प्रतिमा अति ही प्राचीन व परमपूज्य श्री कपिल केवली के सुहस्ते प्रतिष्ठित मानी जाती है । एक और किंवदंती के अनुसार सम्प्रति राजा के समय की भी मानी जाती है ।

एक अन्य किंवदंती के अनुसार श्री श्रेणिक कुमार ने एक रूपवती भीलड़ी कन्या से शादी की थी व उसके जात के नाम पर यह नगरी बसाई थी । कालांतर में यह नगरी त्रम्बवती के नाम से प्रसिद्ध हुई ।

कहा जाता है कि उस समय यहाँ सवा सौ शिखरबद्ध मंदिर, सवा सौ कुँए, अनेकों बावड़ियाँ, सुन्दर बाजार एवं इस मंदिर के पश्चिम भाग में राजगद्दी भी थी । वह स्थान आज भी गद्दीस्थल के नाम से प्रसिद्ध है ।

विक्रम सं. १३१७ में ओसवाल श्रेष्ठी श्री भुवनपाल शाह द्वारा इस मंदिर के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है ।

विक्रम सं. १३४४ में श्रेष्ठी श्री लखमसिंघजी द्वारा यहाँ श्री अम्बिका देवी की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाने का भी उल्लेख मिलता है । उल्लेखों से प्रतीत होता है कि यह नगरी (भीमपल्ली) विक्रम की १४वीं सदी में जलकर भस्म हुई थी, संभवत: अलाउद्दीन ने वि.सं. १३५३ में पाटण शहर पर आक्रमण किया, उसी समय इस नगरी का भी विनाश किया होगा । कहा जाता है, आचार्य श्री सोमप्रभसूरीश्वरजी का उस समय यहाँ चातुर्मास था । उनको श्रुतज्ञान से ज्ञात हुआ की इस नगरी का विनाश जल्दी होनेवाला है । यह जानकार आचार्यदेव व श्रावकगण प्रथम कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को ही चौमासी प्रतिक्रमण करके नगर छोड़कर राधनपुर चले गए । जली हुई ईंटे, राख, कोयले आदि आज भी यहाँ पर भूगर्भ से जगह-जगह प्राप्त होते हैं ।

यह प्रतिमा भी श्री कपिल केवली मुनि के हाथों प्रतिष्ठित मानी जाने के कारण यहाँ की विशेषता ये है कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में भीमपल्ली गच्छ की स्थापना इसी तीर्थ क्षेत्र पर हुई बताई जाती है । कहा जाता है भीलड़ीया गाँव पुन: बसने के पूर्व सरियद गाँव के श्रावकों ने इस प्रभु प्रतिमा को अपने गाँव ले जाने का प्रयत्न किया था ।

उस समय श्रावकों ने प्रतिमा उथापण करके दरवाजे के बाहर लाने का प्रयत्न किया लेकिन दैविक शक्ति से प्रतिमा ने विराट रूप धारण किया व हजारों जंगली भंवरें मंडराने लगे । इस अतिशय को देखकर श्रावकों ने प्रतिमाजी को उसी जगह पर पुन: स्थापित कर दिया । ऐसी अनेक चमत्कारी घटनाएं घटने के वृत्तांत मिलते हैं व अभी भी यहाँ आने से श्रद्धालु भक्तजनों के मनोरथ पूर्ण होते है । 

प्रतिवर्ष पौष कृष्ण १० के दिन मेला लगता है । इसके अतिरिक्त गाँव में एक और मंदिर है ।

*शास्त्र -* "महावीर रास" में "श्रवण धर्म प्रवचन" में इस मंदिर का उल्लेख है,

"गुरुवली" आदि 13-14वीं सदी के कई शिलालेख मिलते हैं जो इस मंदिर की प्राचीनता को दर्शाते हैं ।

वहाँ जमीन के खोदने से बहुत-सी प्राचीन कलात्मक मूर्तियाँ प्राप्त हुई जो बहुत ही आकर्षक हैं । 

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