मंदिर चाहिये या रोजगार ?

इस प्रश्न में दूषित मानसिकता छिपी है। लेकिन क्या इसका उत्तर वही है, जो हम दे रहे है।

 

पिछले दिनों मैं अपने परिवार के साथ मंदिर गया। पूजा से पहले दुकान से प्रसाद लिया, चढ़ाने के लिए माला ली। हम तो तुरंत दर्शन कर लिये , बाकी लोग विधि विधान के साथ पूजा पाठ कर रहे थे। 

 

जिज्ञासु प्रवृत्ति से मैं मंदिर के चारों तरफ घूमने लगा। हर दुकान, हर ठेलिया को देखे कौन क्या बेच रहा है। फिर सब लोग एक जगह चाट खाये, एक जगह जलेबी, फिर एक दुकान से महिलाओं ने अपने लिए श्रृंगार आदि के सामान लिए फिर आगे आकर सब लोग चाय पीये।

 

फिर अचानक ध्यान आया यह मंदिर दो से ढाई हजार लोगों को रोजगार दे रहा है। यह काम तो पाँच हजार करोड़ लगाकर कोई कम्पनी नहीं कर सकती है।

 

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात है। मंदिर किसको रोजगार दे रहा है ! यह वह लोग है, जिनके पास किसी संस्थान से डिग्री नहीं है। इतना धन नहीं है कि कोई बड़ा निवेश कर सकें। अर्थव्यवस्था में समाज के निचले स्तर के लोग है।

 

यह मंदिर कई सौ वर्ष तक रहेगा तब तक रोजगार देता रहेगा।

 

यह सामाजिक, धार्मिक उन्नयन का केंद्र है।

यदि आर्थिक दृष्टि से देखे तो मंदिर , अपने निवेश से कई हजार गुना रोजगार दे रहा है।

शायद हमनें अपनी धार्मिक आस्था के कारण इसको देखा नहीं। हमारे मंदिर, आर्थिक वितरण के बहुत बड़े, स्थाई केंद्र है।

 


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