अष्टापद पर्वत की देव द्वारा कही बात याद कर गौतमस्वामी ने
प्रभु से आज्ञा ली । उत्कृष्ट तप से उन्हें कई लब्धियाँ प्राप्त हो गई थी । इन
लब्धियों की उपलब्धि से आज भी गौतमस्वामी को लब्धिनिधान कहा जाता है ।
उन लब्धियों में से चारणलब्धि का प्रयोग कर वे तुरन्त अष्टापद
पर्वत पर आये । वहाँ उन्होंने विभिन्न मेखला पर 1500 तापस को देखा । जो पर्वत चढ़ने का प्रयास कर रहे थे । 500 तापस उपवास में हरे कंद से पारणे करते हुए चढ़ रहे थे । वे
प्रथम मेखला तक ही पहुँचे थे । दूसरे 500 तापस बेले-बेले तप व सूखे कंद से पारणा करते हुए दूसरी मेखला तक ही पहुँचे थे
। 500 तापस तेले-तेले करते हुये सुखी
कांई से पारणा करते हुए तीसरी मेखला तक पहुँचे थे । पर 1500 में से कोई आगे चढ़ नहीं पा रहे थे ।
जब 1500 तापसों ने गौतमस्वामी का भव्य
तेजयुक्त शरीर देखा । तब उन सभी को गणधर भगवान पर अहोभाव हुआ । गौतमस्वामी पर्वत
पर चढ़ गये ( वे सूर्य की किरणें पकड़कर पर्वत चढ़े ऐसा ग्रन्थ में उल्लेख नहीं, पर किन्हीं प्रवचनों में सुनने में आया है । )। भरतेश्वर
निर्मित मंदिर में जाकर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा को वंदन किया । फिर बाहर आकर
एक वृक्ष नीचे बैठे । वहाँ विद्याधर व अनेक देव वहाँ आये । गणधर भगवान को वंदन कर
उनका धर्मोपदेश सुना । प्रातःकाल जब वे नीचे उतरने लगे । तब उन 1500 तापसों ने विचार किया । सरलतापूर्वक अष्टापद पर्वत पर
चढ़नेवाला कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो सकता । हमें इनका शिष्यत्व ग्रहण कर लाभ लेना
चाहिए । गौतमस्वामी से विनती कर उन्होंने गणधर भगवंत से दीक्षा अंगीकार की । देवों
ने आकर उन सभी को श्रमण वेष प्रदान किया ।
गौतमस्वामी ने अपने गुरु महावीर प्रभु का परिचय दिया और
उनके पास पहुँचने के लिए तत्पर हुए ।
नीचे आकर गौतमस्वामी गौचरी में एक गाँव से खीर लेकर आये ।
एक व्यक्ति को ही पर्याप्त हो उतनी खीर में से गौतमस्वामी ने अक्षिणमाणसी नामक
लब्धि से 1500 तापसों का पारणा करवाया । कितना
आश्चर्यजनक ! स्वयं ने पारणा किया तब वह खीर पूरी हुई । सब तपस्वी अवाक् रह गये ।
ऐसे लब्धिधारी को गुरु बनाकर हम भाग्यशाली हो गये ।
जो तीसरी मेखला पर अटके हुए, तेले-तेले पारणे के तपस्वी थे उन 500 मुनियों को शुभध्यान बढ़ते वहीं केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
प्रभु की तरफ आगे बढ़ते हुए समवसरण की तरफ बढ़े । बेले-बेले
पारणे के तपस्वियों को समवसरण की ध्वजा आदि देखकर केवल्यप्राप्ति हो गई । प्रभु के
दर्शन करते ही शेष 500 मुनियों को भी केवल्यप्राप्ति
हो गई ।
वहाँ गौतमस्वामी ने प्रभु को वंदन नमस्कार किया । तब 1500 तापस मुनि प्रभु की मात्र प्रदक्षिणा कर केवलियों की परिषदा
तरफ बढ़ने लगे तब गौतमस्वामी ने उन्हें रोककर भगवान को वंदन करने का कहा ।
तब वीर प्रभु ने उन्हें केवल्यप्राप्ति हुई है, उनकी अशातना न करने का गौतमस्वामी को कहा । गौतमस्वामी ने
मिथ्यादुस्कृत दिया व उन सभी को खमाया ।
इसके बाद वीर प्रभु ने गौतमस्वामी को चिंतित देखकर उनके राग
व इसी भव में मुक्त होने की बात कही थी जो हमने कल की पोस्ट में पढ़ी ।
सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र ।
इस घटना को पोस्ट कर्ता ने साक्षी भाव से ज्यों का त्यों
बताने का प्रयास किया है । यहां किसी भी पंथ का समर्थन या किन्हीं का मत विपरीत
बताने का उद्देश्य नही है। तीर्थंकर चरित्र के लेखक श्री रतनलाल जी दोशी ने यह
घटना उनके संदर्भ ग्रन्थ से वर्णित करते हुए जिज्ञासा भी व्यक्त की है कि साक्षात्
प्रभु को छोड़कर प्रतिमा के वन्दन नमस्कार का फल ज्यादा कैसे हो सकता है ?
पोस्ट संकलन के मेरे इस प्रयास में जिनवाणी, सत्य व किन्हीं गुरु भगवन्तों की जाने-अनजाने अंशमात्र भी
आशातना हुई हो तो नम्रभाव से हार्दिक क्षमायाचना ।
कल का जवाब - भगवान वर्धमान एवं गौतमस्वामी का पूर्वभव का
अनुराग की बात भगवतीजी सूत्र के 14 वें शतक में 7 वें उद्देशक में वर्णित है ।
आज का सवाल - प्रथम केवलज्ञानप्राप्त करने वाले 500 तापस पारणे में क्या लेते थे ?
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्
।
पिक प्रतीकात्मक है ।
। अणुकृपा ही केवलम् ।
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