उपधान की महत्ता और संपूर्ण जानकारी

                      

 उपधान का अर्थ संसार के जंजालों से मुक्त बनकर आत्मा की समिपता को प्राप्त करने की प्रक्रिया । 

 

                   उपधान मतलब योगोद्धहन...... साधु महात्माओ को विशेष सूत्रों का अध्ययन करने पूर्व योग करने ज़रूरी होते है ,करने के पश्चात ही अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त होता है । 

 

योग" मे तप-जप-क्रिया की साधना है ...

तप से तन शुद्ध होता है ...

जाप से मन शुद्ध होता है ...

क्रिया से जीवन शुद्ध होता है ...

 

               उपरोक्त शुद्धिओ द्वारा आत्मा निर्मळ बनता है तत्पश्चात जो सूत्रो का अध्ययन करने मे आवे तो उसके सारे परिणाम मिलते है । 

 

                साधुओ की तरह श्रावको को भी नमस्कार महामंत्र, ईरियावही, तस्य उत्तरी, अन्नत्थ, लोगस्स, नमुन्थुणं, अरिहंत चेईयाणं, पुकखरवरदीवढ्ढे, सिद्धाणं बुद्धाणं, वैयावच्चगराणं आदि सूत्रो के अध्ययन की योग्यता प्राप्त करने हेतु योग करने पडते है । उपधान रूपी योगोद्धहन सभी श्रावक-श्राविकाओ को अनिवार्य करवाना होता है ।जिससे सूत्रशुद्धि-अर्थशुद्धि और जीवन शुद्धि होती है ।उपधान के बिना मिले हुए सूत्रो को उधार से प्राप्त हुए माल की उपमा दी गयी है वो सुपरिणाम वाले नहीं बनते है । 

 

शास्त्र मे छ: प्रकार के श्रावको के उपधान बताये गये है । 

 

१. पंचमंगल महाश्रुतस्कंध (नवकार) सूत्र का प्रथम उपधान १८ दिनों का । 

 

२. प्रतिक्रमण श्रुतस्कंध (ईरियावही, तस्स उत्तरि) सूत्र का दुसरा - उपधान १८ दिनों का । 

 

३. शक्रस्तवाध्ययन(नमुत्युणं) सूत्र का तीसरा उपधान ३५ दिनों का । 

 

४. चैत्यस्तवाध्ययन ( अरिहंत चेईयाणं-अन्नत्थ ) सूत्र का चतुर्थ उपधान ४ दिनों का । 

 

५. नामस्तवाध्ययन (लोगस्स) सूत्र का पांचवा उपधान २८ दिनों का । 

 

६. श्रुतस्तव-सिद्धस्तव (पुकखरवरदीवढ्ढे, सिद्धाणं बुद्धाणं, वैचावच्चगराण) सूत्र का सात दिनों का ,कुल ११० दिनों का । 

 

सभी अलग अलग उपधान हेतु तप-जप निश्चित किए हुए है । 

 

उपधान मे उपवास

 

1. 12.5 

 

2. 12.5

 

3. 19.5

 

4. 2.5

 

5. 15.5

 

6. 4.5 

 

कुल 110 दिनों मे 67 उपवास करवाने होते है । 

 

                  पूर्वकालिन उपधान और आज के हो रहे उपधान मे बहुत ही विशेष फ़र्क़ देखने को मिलता है ।

 

पूर्व मे होते उपधानो मे आज की तरह से चकाचक निविया होती है । इस प्रकार की निविया नही होती थी । तप उपवास और आयंबिल से ही होता था । 

 

पूर्वकाळ मे इस प्रकार से उपधान होते थे ....

 

उपधान दिवस तप 

 

1. 16 प्रथम पांच उपवास + 8 आयंबिल + 3 उपवास

 

2. 16 प्रथम पांच उपवास + 8 आयंबिल + 3 उपवास (इस प्रकार से 16 दिनों मे 12 उपवास का तप होता था)

 

3. 35 3 उपवास + 32 आयंबिल 

 

4. 4 1 उपवास + 3 आयंबिल 

 

5. 28 3 उपवास + 25 आयंबिल 

 

6. 7 1 उपवास + 5 आयंबिल + 1 उपवास 

 

                आज भी कोई कोई पुन्यात्मा उपरोक्त मूळविधि से उपधान करते नजर आते है , परंतु मन की ढीलास, तन की कमजोरी, संयोगो की आधिनता आदि कारणो से पूर्वाचार्यो ने उपरोक्त मूळ विधि मे थोडा सा बदलाव किया है । इसका मुख्य कारण अल्प सत्ववाळे भी यह तप साधना मे शामिल हो सके । 

 

                  आयंबिल के बदले निविया आ गई । जिससे , इस बदलाव करने के पश्चात भी तप मे कोइ कमी नहीं की है ।दिनो मे बढ़ोतरी की (१६ के १८ दिन किए) परंतु कुल मिलाकर तप एक समान रखा है । 

 

   पहेले अढारीये मे कुल १२ उपवास होने ज़रूरी है ।जो पूर्व के 8 उपवास अौर 8 आयंबिल = 4 उपवास से होता था । वर्तमान मे 18 दिनों मे 12.5 उपवास का तप पूर्ण करने का होता है । जो इस प्रकार से होता है । 

 

दिवस तप कुल उपवास 

 

9 उपवास = 9 उपवास

8 निवि = 2 उपवास

8 परिमुढ = 1 उपवास 

1 आयंबिल = 0.5 उपवास 

 

18 12.5 12.5 उपवास 

 

             इस तरह से कुल 18 दिनों मे 12.5 उपवास हुए (उपवास और आयंबिल का परिमुढ तप मे गिनती नहीं होती है , निवि मे गिना जाता है एक परिमुढ = 0.5 उपवास)

 

दुसरा उपधान ( दुसरा अढारिया )भी इसी प्रकार से तप जप से करना होता है ।

 

              वर्तमान मे पहेला -दुसरा -चौथा और छठ्ठा उपधान एक साथ मे करवा कर माळारोपण विधि करने मे आती है ।तत्पश्चात पैंतीस दिनों का (तीसरा उपधान) अौर अट्ठाईस दिनों का (पांचवाँ उपधान) करवाने मे आता है । 

 

               चोथा उपधान मे पूर्व की मूळविधि से जैसे 1 उपवास 3 आयंबिल और पांचवे उपधान मे भी उसी प्रकार से 1 उपवास + 5 आयंबिल + 1 उपवास करवाये जाते है । पैतीसवा और अटठयावीसवाँ उपवास निवि से करवाया जाता है । 

 

वर्तमान मे भी तीनो उपधान आज भी किसीको मूळविधिथी से करना हो तो प्रसन्ना पूर्वक से कर सकता है । 

 

               निवि मे पार बिना के राग-द्वेष होने की शकयता होती है । जबकि आयंबिल मे अनासकता के भावो की केलवणी होती है । जिभ नियंत्रण मे रहती है अर्थात खाने की लालसा नियंत्रण मे रहती है । राग द्वेष की दुर्घटना का सर्जन नहीं होता है । 

 

सकंलन - देवलोक जिनालय पालीताणा

 

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