धन्यकुमार भाग - 23

जिनवाणी - श्रुतधारा
प्रातः स्मरणीय महापुरुष
14 नवंबर 2021
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🌹धन्यकुमार🌹

📕 भाग - 23

एक दिन धन्यकुमार अपने महल की 7वीं मंजिल के झरोखे में बैठकर नगर के दृश्य को निहार रहा था तभी अचानक धन्यकुमार ने दीन-हीन हालत में नगर में प्रवेश करते हुए अपने माता-पिता व भाई-भाभी को देखा। 

अपने परिवार की पुनः इस दुर्दशा को देखकर धन्यकुमार को अत्यंत ही दुःख हुआ। 

उसने सोचा, "अहो ! मैं इतनी धन संपत्ति छोड़कर निकला था, फिर वापस उनकी यह हालत कैसे हो गई ? कर्म की गति बड़ी विचित्र है। किए हुए कर्मों की सजा आत्मा को अवश्य भुगतनी ही पड़ती है।"

इस प्रकार सोचकर धन्यकुमार अपने माता-पिता के पास आया। उनके चरणों में भावपूर्वक नमस्कार करके बोला, "पिताजी ! आपकी यह हालत कैसे हो गई ?" धनसार ने कहा, "बेटा ! आकाश में जब तक सूर्य चमक रहा होता है तभी तक चारों और प्रकाश दिखाई देता है, सूर्य के चले जाते ही सर्वत्र अंधेरा छा जाता है। तेरे जैसे पुण्यशाली के चले जाने से मेरी यह दुर्दशा हुई है। तेरे चले जाने के बाद हमारा बहुत-सा धन चोर चुरा ले गए। कुछ धन अग्नि में नष्ट हो गया और कुछ धन जल से नष्ट हो गया। जमीन में गड़ा हुआ धन भी कोयले में बदल गया। आगे चलकर पेट भरना हमारे लिए मुश्किल हो गया, अतः हम आजीविका की शोध में घूमते हुए यहाँ आए हैं।

धन्यकुमार ने बड़े आडम्बर के साथ अपने माता-पिता व भाई-भाभी का नगर में प्रवेश कराया ।

धन्यकुमार के पुण्य प्रभाव से वे खूब आनंद पूर्वक वहाँ रहने लगे। 

परंतु कुछ समय के बाद ही धन्यकुमार के इस विशिष्ट मान-सम्मान को देख उसके तीनों भाई ईर्ष्या से जलने लगे।

ठीक ही कहा है- ''दूध से धोने पर भी कौआ कभी कलहंस (उज्ज्वल) नही बनता है, उसी प्रकार कितना ही मान-सन्मान व सत्कार-सम्मान करने पर भी दुर्जन व्यक्ति सज्जन के साथ कलह और ईर्ष्या ही करता है।"

🤔 क्रमशः ....
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लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.
संकलन - जैन नीतेश बोहरा, रतलाम

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