Story - Kahaniyan

*कहानी बड़ी सुहानी*

(1) *कहानी*

  *!! छोटा न समझें*
*किसी भी काम को !!*

एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था। वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता। जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता। उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था। उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझें और अपनी आदतें सुधारें। लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा। भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।

ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके। भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया। वापस जाते समय साधू भक्त को  पारस पत्थर देते हुए बोले- इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना। इस पर भक्त बोला- फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं। यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।

इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले-प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो। भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।

एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला-मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।

राजा बोला-क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो? भक्त बोला-क्यों नहीं। मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है। राजा तैयार हो गया। पहले पंडितों ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई। जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा-"देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।' इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।

इस भक्त का नाम था रविदास। जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं। जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे। यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था। उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को "श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में भी शामिल किया गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे। जिस काम से किसी के परिवार का भरण-पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है।

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(2) *कहानी*

*आत्म मूल्यांकन*

एक बार एक व्यक्ति कुछ पैसे निकलवाने के लिए बैंक में गया। जैसे ही कैशियर ने पेमेंट दी कस्टमर ने चुपचाप उसे अपने बैग में रखा और चल दिया। उसने एक लाख चालीस हज़ार रुपए निकलवाए थे। उसे पता था कि कैशियर ने ग़लती से एक लाख चालीस हज़ार रुपए देने के बजाय एक लाख साठ हज़ार रुपए उसे दे दिए हैं लेकिन उसने ये आभास कराते हुए कि उसने पैसे गिने ही नहीं और कैशियर की ईमानदारी पर उसे पूरा भरोसा है चुपचाप पैसे रख लिए।

इसमें उसका कोई दोष था या नहीं लेकिन पैसे बैग में रखते ही 20,000 अतिरिक्त रुपयों को लेकर उसके मन में  उधेड़ -बुन शुरू हो गई। एक बार उसके मन में आया कि फालतू पैसे वापस लौटा दे लेकिन दूसरे ही पल उसने सोचा कि जब मैं ग़लती से किसी को अधिक पेमेंट कर देता हूँ तो मुझे कौन लौटाने आता है???

बार-बार मन में आया कि पैसे लौटा दे लेकिन हर बार दिमाग कोई न कोई बहाना या कोई न कोई वजह दे देता पैसे न लौटाने की।

लेकिन इंसान के अन्दर सिर्फ दिमाग ही तो नहीं होता… दिल और अंतरात्मा भी तो होती है… रह-रह कर उसके अंदर से आवाज़ आ रही थी कि तुम किसी की ग़लती से फ़ायदा उठाने से नहीं चूकते और ऊपर से बेईमान न होने का ढोंग भी करते हो। क्या यही ईमानदारी है?

उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अचानक ही उसने बैग में से बीस हज़ार रुपए निकाले और जेब में डालकर बैंक की ओर चल दिया।

उसकी बेचैनी और तनाव कम होने लगा था। वह हल्का और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। वह कोई बीमार थोड़े ही था लेकिन उसे लग रहा था जैसे उसे किसी बीमारी से मुक्ति मिल गई हो। उसके चेहरे पर किसी जंग को जीतने जैसी प्रसन्नता व्याप्त थी। धमँ संसार गुँप में आप का स्वागत है 

रुपए पाकर कैशियर ने चैन की सांस ली। उसने कस्टमर को अपनी जेब से हज़ार रुपए का एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘भाई साहब आपका बहुत-बहुत आभार! आज मेरी तरफ से बच्चों के लिए मिठाई ले जाना। प्लीज़ मना मत करना।”

‘‘भाई आभारी तो मैं हूँ आपका और आज मिठाई भी मैं ही आप सबको खिलाऊँगा, ’’ कस्टमर ने बोला।

कैशियर ने पूछा, ‘‘ भाई आप किस बात का आभार प्रकट कर रहे हो और किस ख़ुशी में मिठाई खिला रहे हो?’’

कस्टमर ने जवाब दिया,  ‘‘आभार इस बात का कि बीस हज़ार के चक्कर ने मुझे आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान किया। आपसे ये ग़लती न होती तो न तो मैं द्वंद्व में फँसता और न ही उससे निकल कर अपनी लोभवृत्ति पर क़ाबू पाता। यह बहुत मुश्किल काम था। घंटों के द्वंद्व के बाद ही मैं जीत पाया। इस दुर्लभ अवसर के लिए आपका आभार।”

मित्रों, कहाँ तो वो लोग हैं जो अपनी ईमानदारी का पुरस्कार और प्रशंसा पाने का अवसर नही चूकते और कहाँ वो जो औरों को पुरस्कृत करते हैं। ईमानदारी का कोई पुरस्कार नहीं होता अपितु ईमानदारी स्वयं में एक बहुत बड़ा पुरस्कार है। अपने लोभ पर क़ाबू पाना कोई सामान्य बात नहीं। ऐसे अवसर भी जीवन में सौभाग्य से ही मिलते हैं अतः उन्हें गंवाना नहीं चाहिए अपितु उनका उत्सव मनाना चाहिए।

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(3) *कहानी*

  *मैं बहरा था, बहरा हूँ और बहरा रहूँगा!*

एक बार एक सीधे पहाड़ में चढ़ने की प्रतियोगिता हुई. बहुत लोगों ने हिस्सा लिया. प्रतियोगिता को देखने वालों की सब जगह भीड़ जमा हो गयी. माहौल  में  सरगर्मी थी , हर तरफ शोर ही शोर था. प्रतियोगियों ने चढ़ना शुरू किया। लेकिन सीधे पहाड़ को देखकर भीड़ में एकत्र हुए किसी भी आदमी को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी व्यक्ति ऊपर तक पहुंच पायेगा …

हर तरफ यही सुनाई देता …“ अरे ये बहुत कठिन है. ये लोग कभी भी सीधे पहाड़ पर नहीं चढ़ पायंगे, सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं, इतने सीधे पहाड़ पर तो चढ़ा ही नहीं जा सकता और यही हो भी रहा था, जो भी आदमी कोशिश करता, वो थोडा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता, कई लोग दो -तीन बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे …पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी, ये नहीं हो सकता, असंभव और वो उत्साहित प्रतियोगी भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास धीरे धीरे करके छोड़ने लगे,

लेकिन उन्हीं लोगों के बीच एक प्रतियोगी था, जो बार -बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर पहाड़ पर चढ़ने में लगा हुआ था ….वो लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा और अंततः वह सीधे पहाड़ के ऊपर पहुच गया और इस प्रतियोगिता का विजेता बना. उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ, सभी लोग उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे, तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया, भला तुम्हे अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय कैसे प्राप्त की ?

तभी  पीछे  से  एक  आवाज़  आई … अरे उससे क्या पूछते हो, वो तो बहरा है तभी उस व्यक्ति ने कहा कि हर नकारात्मक बात के लिए -
*" मैं बहरा था, बहरा हूँ और बहरा रहूँगा ".*

दोस्तों, हम सब के अंदर असीम सम्भावनाएं होती हैं और अपना लक्ष्य प्राप्त करने की क्षमताएँ भी होती हैं लेकिन हम अपने परिवेश और मौजूदा वातावरण में फैले नकारात्मकता की वजह से खुद को काम आंकते हैं और हिम्मत हार जाते हैं, और इसी वजह से अपने बड़े से बड़े और छोटे से छोटे सपनों के साथ समझौता कर लेते हैं और उन्हें बिना पूरा किये ही जिंदगी गुजर देते हैं।

दोस्तों ये कहानी हमें यही सिखाती है की आईये हम, हमें कमजोर बनाने वाली हर एक आवाज को अनसुना करें और उसके प्रति बहरे हो जाएँ तथा हर उस दृश्य के प्रति अंधे हो जाएँ जो हमें सफलता के शिखर तक पहुँचने से रोकते हैं।
    
*अगर ये कहानी आपको अच्छी लगे तो अपने दोस्तों और रिश्तेदार तक जरूर शेयर करना!*

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(4) *कहानी*

               *सत्संग के फूल*

१• _किसीकी बुराई न करें। *व्यवहार यथायोग्य करते हुए भी भीतरसे सबको भगवान् ही समझें |* भीष्मजी कृष्णको भगवान्-रूपसे जानते थे, पर युद्धके समय वे उनकी पूजा अपने बाणोंसे करते हैं ! 'जैसा रूप, वैसी पूजा'।_

२• _विवेकको महत्व देना हमारा काम है। *जो अपने विवेकका आदर नहीं करेगा वह गुरु, शास्त्र, वेद आदिका भी आदर नहीं करेगा।*_
_वह सीख तो लेगा, पर तत्त्वकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा।_

३• _आप रुपयोंको चाहते हैं, *रुपये आपको नहीं चाहते, फिर भी आप रुपये कमा लेते हैं।* परन्तु परमात्मा तो आपको चाहते हैं फिर उनकी पाप्तिमें क्या कठिनता ।_

४• _*दूसरे साधक नहीं हैं- ऐसे देखेंगे तो अभिमान आ जायगा।* हमें दूसरोंको न देख कर अपना साधन करना है। साधन वह होता है, जो निरन्तर हो।_

५• _जैसे अंकुर निकले बिना बीजका पता नहीं लगता, ऐसे ही *वासना बीजरूपसे रहती है,* उसका पता नहीं लगता। वासनासे कामना, आशा, तृष्णा आदि उत्पन्न होते हैं।_
*_"शुद्ध वासना भी तत्त्वबोधमें बाधक होती है।"_*

६• _*भगवान्का आश्रय लेकर साधन करना चाहिये* मामाश्रित्ययतन्ति ये' (गीता७/२९ ), 'मद्व्यपाश्रय:(गीता१८।५६)।_

_*यदि भगवान्का आश्रय न लिया जाय तो अभिमान पिण्ड नहीं छोड़ेगा। भगवत्प्राप्ति कृपासे होती है,उद्योगसे नहीं ।*_
_भगवत्कृपासे भक्त विघ्नोंको भी तर जाता है और तत्वप्राप्ति भी कर लेता है।_

•} परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी मित्रों आपको हमारा स्नेह वंदन।कल मैंने अपने स्वर्गीय पिता जी का स्वेटर पहना था ,दिन में कई बार उनकी याद आती रही,सोच रही थीकि वो कितने भाग्यशाली होते है जिनके मां बाप जीवित रहते है।तो फिर सोचा आज कथा सेवा में भी क्यों न मां बाप पर ही कथा पुष्प अर्पित किया बालक  अपने माँ बाप की खूब सेवा करता था।अक्सर दोस्त उससे कहते
कि अगर इतनी सेवा तुमने भगवान की  किए होते तो तुम्हे भगवान
मिल जाते..

लेकिन उन सब चीजों से अनजान वो अपने
माता पिता की सेवा करता रहा..

एक दिन उसकी माँ बाप
की सेवा भक्ति से खुश होकर भगवान धरती पे आ गए..
उस वक्त वो बालक अपनी माँ के पाँव दबा रहा था, भगवान दरवाजे
के बाहर से बोले, दरवाजा खोलो बेटा, मैं
तुम्हारी माता पिता की सेवा से प्रसन्न होकर वरदान देने
आया हूँ..
लड़के ने कहा-इंतजार करो प्रभु, मैं माँ की सेवा मे
लगा हूँ..भगवान बोले-देखो मुझे जल्दी है, वापस चला जाऊँगा,.बालक- आप
जा सकते है भगवान, मैं सेवा बीच मे नही छोड़ सकता..कुछ देर
बाद उसने दरवाजा खोला, भगवान बाहर खड़े थे.बोले- लोग मुझे
पाने के लिए कठोर तपस्या करते है, मैं तुम्हें सहज मे मिल
गया और तुमने मुझसे प्रतीक्षा करवाई...लड़के का जवाब था-
'हे ईश्वर, जिस माँ बाप की सेवा ने आपको मेरे पास

आनेको मजबूर कर दिया, उन माँ बाप की सेवा बीच मे छोड़कर,
मैं दरवाजा खोलने कैसे आता." भगवान उसके जवाब से खुश होकर उसे वरदान दे कर अंतर्धान हो गए।और मित्रों यही इस जिंदगी का सार है,
जिंदगी मे हमारे माँ बाप से बढ़कर कुछ नहीं है. हमारे माँ बाप
ही हमे ये जिंदगी देते है. यही माँ बाप अपना पेट काटकर बच्चो के।   धर्म संसार गुँप ७९७७७४०४६२
लिए अपना भविष्य दांव पर लगा देते है. इसके बदले हमारा भी ये
फर्ज बनता है कि हम कभी उन्हे दुःख ना दे. उनकी आँखो में
आँसू कभी ना आए, चाहे परिस्थिति जो भी हो ।क्योंकि हमने भगवान को तो देखा नहीं है।परन्तु मां बाप रूपी जीवित भगवान की सेवा कर ली तो हमें किसी की पूजा करने की जरूरत ही नहीं है।मां बाप एक वृक्ष के समान होते है और हम उनसे निकली शाखाएं है।उनसे ही हमारा अस्तित्व है।अंत में आपसे पुनः निवेदन है कि आप करोना काल में मानवीय दूरी का पालन करें मास्क का प्रयोग करें &चीन के सामान का बहिष्कार करें और स्वदेशी सामान अपनाए ताकि आने वाले आर्थिक संकट का सामना हम कर सके।

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(5) *कहानी*

*सत्संग वाणी:- कर्म, कर्मफल एवं न्याय..*

एक रोज एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले। गुरुजी को ज्यादा इधर-उधर की बातें करना पसंद नहीं था! कम बोलना और शांतिपूर्वक अपना कर्म करना ही गुरू को प्रिय था..परन्तु शिष्य बहुत चपल था.! 

उसे हमेशा इधर-उधर की बातें ही सूझती. उसे दूसरों की बातों में बड़ा ही आनंद मिलता था.. 
चलते हुए जब वे तालाब के पास से होकर गुजर रहे थे तो देखा कि एक मछुआरे ने नदी में जाल डाल रखा है..! 

शिष्य यह देख खड़ा हो गया और मछुआरे को ‘अहिंसा परमो धर्म’ का उपदेश देने लगा. मछुआरे ने उसे अनदेखा किया लेकिन शिष्य तो उसे हिंसा के मार्ग से निकाल लाने को उतारू ही था! 

शिष्य और मछुआरे के बीच झगड़ा शुरू हो गया. यह देख गुरूजी शिष्य को पकड़कर ले चले और समझाया- बेटा _हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है..! 
शिष्य ने पूछा- हमारे राजा को तो बहुत से दण्डों के बारे में पता ही नही है और वह बहुतों से लोगों को दण्ड ही नहीं देते हैं..! तो आखिर इस हिंसक प्राणी को दण्ड कौन देगा..?

गुरू ने कहा- तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुंच सभी जगह है. ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वह सब जगह पहुंच जाते हैं. इसलिए इस झगड़े में पड़ना गलत होगा..! 

शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया. इस बात के दो वर्ष बाद एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे. शिष्य अब दो साल पहले की वह मछुआरे वाली घटना भूल चुका था..! 

उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक घायल सांप बहुत कष्ट में था. उसे हजारों चीटियां नोच-नोच कर खा रही थीं. शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया. दया से उसका ह्रदय पिघल गया..! 

वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा- बेटा! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो..! 

यदि अभी तुमने इसे बचाया तो इस बेचारे को फिर से दूसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है. शिष्य ने पूछा- गुरूजी इसने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह पड़ा है.?

गुरूजी बोले- यह वही मछुआरा है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने को उतारू था. वे मछलियां ही चींटियां हैं जो इसे नोच-नोचकर खा रही हैं..! 

यह सुनते ही आश्चर्य में भरे शिष्य ने कहा- यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है. गुरुजी बोले- बेटा! इसी लोक में स्वर्ग-नरक के सारे दृश्य मौजूद हैं. हर क्षण तुम्हें ईश्वर के न्याय के नमूने देखने को मिल सकते हैं..! 

चाहे तुम्हारे कर्म शुभ हो या अशुभ उसका फल तुम्हें भोगना ही पड़ता है. इसलिए ही वेद में भगवान ने उपदेश देते हुए कहा है..अपने किए कर्म को हमेशा याद रखो, यह विचारते रहो कि तुमने क्या किया है क्योंकि तुमको वह भोगना पड़ेगा..! 

जीवन का हर क्षण कीमती है. इसे बुरे कर्मों में व्यर्थ न करो.. अपने खाते में हमेशा अच्छे कर्मों की बढ़ोत्तरी करो क्योंकि जैसे कर्म होंगे वैसा ही फल मिलेगा ...! 
इसलिए कर्मों पर ध्यान दो क्योंकि ईश्वर हमेशा न्याय ही करता है..! 
शिष्य बोला- गुरुदेव तो क्या अगर कोई दुर्दशा में पडा हो तो उसे उसका कर्म मानकर उसकी मदद नहीं करनी चाहिए? गुरुजी बोले- अवश्य करनी चाहिए. मैंने तुम्हें इसलिए रोका क्योंकि मुझे पता था कि वह किस कर्म को भुगत रहा है. साथ ही मुझे ईश्वर के न्याय की झलक भी तो तुम्हें दिखानी थी..! 

मैंने मदद नहीं की क्योंकि मैं जानता था लेकिन अगर मुझे इसका पता न होता और फिर भी मैं कष्ट में पड़े जीव की मदद न करता तो यह मेरा पाप होता..! 
 शिष्य गुरुजी की बात को अब सही अर्थ में समझने लगा था.जीवन उतना ही है जितना विधाता ने तय किया है..! 
हमें पता नहीं कि कितने दिन विधाता ने दिए हैं..! इसलिए हर दिन अनमोल है. हम किसी के जीवन में जिस दिन कोई सुखद परिवर्तन कर पाते हैं तो समझना चाहिए कि हमने विधाता के दिए जीवन का उस दिन का कर्ज चुका दिया..!! 

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