जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
गुजरात की महाजन परम्परा का ओजस्वी इतिहास हैं और उसमें भी अहमदाबाद के नगरसेठ की तो भव्य एवं उज्जवल परम्परा दृष्टिगत होती हैं । जिनशासन की कीर्तिगाथा का यह कीर्तिमान प्रकरण हैं । सेठ शांतिदास की चतुराई , उदारता एवं धर्मपरायणता उनके वंशजों में उतर आयी थी । केवल अकेले नगरसेठ ही नहीं , अपितु हरकुंवर सेठानी , गंगामा , मोहिनाबा समान परिवार के नारीरत्नों ने धर्म तथा समाज में अपना अग्रगण्य प्रभाव प्रसारित किया था । सेठ दलपतभाई की पत्नी गंगाबहन अनेक प्रकार के धर्मकार्यो में सदा ही आगे रहती थी । विक्रम संवत् 1921 में सेठ श्री दलपतभाई ने तीर्थराज श्री शत्रुंजय का छ'री पालित यात्रासंघ निकाला था । पूजनीय मूलचंद्रजी महाराज इस संघ के साथ थे और उस समय पूज्य वृद्धिचंद्रजी महाराज पालिताणा से भावनगर पधारे थे । इस संघ में गंगामा ने साधु-साध्वियों की वैयावच्च में और श्रावक-श्राविकाओं की साधर्मिक भक्ति में अपार धन तो खर्च किया ही , परंतु उसके पीछे अपने आपको भी घिस डाला । चारों प्रकार के संघों की गरिमा वहन करती हुई गंगामा धर्ममाता समान थी । प्रत्येक को उनसे माता की ममता , वात्सल्य एवं सेवा प्राप्त होती और इसलिए तो वे गंगामा के रुप में पहचानी जाती थी । उनकी उदारता देखकर सबको आबू के ऊपर अक्षयकीर्ति सदृश देवालय निर्मित करनेवाली अनुपमादेवी का स्मरण होता था । विक्रम संवत् 1967 की कार्तिक वदि 9 से मार्गशीर्ष वदि 10 के रविवार तक अहमदाबाद में चारों संघों को अहमदाबाद की नगर यात्रा करवाई । यह धर्मप्रसंग इतना विरल था कि मुनिराज श्री रत्नविजयजी महाराज ने इस धर्मयात्रा का वर्णन करते हुए भाववाही स्तवन रचा था ।
एक समय गंगामा आचार्यश्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज साहब का व्याख्यान सुन रही थी । इस समय शासनसम्राट आचार्य ने अपनी सिंहगर्जनाभरी वाणी में तीर्थरक्षा के महत्व सम्बन्ध में विस्तृत विवरण किया । गंगामा के चित्त में इससे उल्कापात मच गया । उस समय परम पवित्र समेतशिखरजी पहाड़ पर अंग्रेज शिकारीयों और सैलानी प्रवासियों के लिए एक गेस्ट हाउस बाँध रहे थे ।
गंगामा का चित्त विचारों में खो गया । अनेक तीर्थकरों एवं मुनिगणों की तपोभूमि और निर्वाणभूमि का
ऐसा अपमान । कितनी पावन है यह तीर्थभूमि कि जहाँ से वीस तीर्थकर परमात्मा एवं अनेक मुनिगण तपश्चर्या करते हुए मोक्षपथ पर सिधारे हैं । ऐसी पावन भूमि पर अंग्रेज सैलानियों के लिए मौज-शौक , शिकार , आनंदप्रमोद , मांसाहार , मदिरापान और अभक्ष्य भोजन का अताथिगृह ? गंगामा मन-ही-मन प्रभु पार्श्वनाथ की प्रार्थना करने लगी । श्री समेतशिखर पर्वत भी श्री पार्श्वनाथ पर्वत के रुप में विख्यात था । इस आपत्ति में से मुक्त होने के लिए गंगामा पार्श्वनाथ भगवान का स्तवन गाने लगी ।
गंगामा को अपने वीर पूर्वजों का स्मरण हुआ । सेठ शांतिदास ने तीर्थरक्षा के लिए धर्म-जनूनी ऐसे औरंगजेब को झुकाया था । गंगामा के पुत्र लालभाई भोजन के लिए आये तब गंगामा ने उनकी थाली में चूड़ियाँ रखीं । लालभाई इसका अर्थ समझ नहीं सके , तब गंगामा ने कहा ,
" आचार्यश्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज साहिब तीर्थरक्षा के लिए व्यथित हैं , फिर भी तुम नगरसेठ होते हुए कुछ भी नहीं करते हो । ऐसे निष्क्रिय ही रहने वाले हो , तो ये चूड़ियाँ पहन लो और मुझे अपनी सत्ता दे दो । तीर्थरक्षा के लिए मैं अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हूँ । "
माता के पुण्यप्रकोप से लालभाई में जोश उत्पन्न हुआ । पुत्र के वीरत्व को माता ने जाग्रत किया । उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रचंड़ विरोध प्रकट किया और गेस्ट हाउस का निर्माण-कार्य बंद रखवाया ।
गंगामा साधु-साध्वियों का बहुत ही आदर करती थीं । साथ-ही-साथ पाँच महाव्रतों के बारें में साधु-साध्वी समुदाय में शिथिलता आ न जाय , इसकी कड़ी निगरानी भी रखती थीं । कहीं भी कोई क्षति या अपूर्णता देखें कि तुर्त ही वात्सल्यमयी माता की तरह ध्यान खींचे । अपने परिवार में भी धर्ममर्यादा बनी रहे इसलिए सदैव जाग्रत रहतीं और अभक्ष्य भक्षण न हो इसकी सावधानी रखतीं । ऐसी थी धर्ममाता समान गंगामा ।
साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा

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