Ratna Kanika

हे आदिनाथ ! आपका नाम सदा मेरे स्मरणमें रहे और उस वक्त जगत का विस्तरण रहे। 

आचार्य भगवंतके पास से परिग्रह परिमाण व्रत लेने के बाद पेथडशा अपना नसीब आजमाने मांडवगढ अपने परिवार के साथ जा रहे थे। जब वह नगर आया और पेथडशा प्रवेश करने ही जा रहे थे, तब एक साप को फेण लगाकर बैठा देखा। 
क्षणभर रुक गये, तब किसी जानकारने कहा-रुको मत महामंगल है। प्रवेश कीजिए। 
तब इस शकुन का स्वीकार कर नगर प्रवेश किया। 
तब जानकारने कहा-आप उस क्षण बिना रुके प्रवेश करते तो राजा हो सकते थे। रुक जाने की वजह से अब राजातुल्य महामंत्री पद प्राप्त करोगे। 
तब यह सुनकर पेथडशा को उस क्षण इस बात को लेकर ग्लानि हुई कि-अगर मैं राजा होता, अगर पूर्ण सत्ता मुझे मिल जाती, तो मैं मेरे पूरे राज्यमें जगह जगह पर निर्विरोध भव्य जिनालय निर्माण करवा सकता था, जो जिनालय गत परमात्मा के दर्शन से हजारों व्यक्ति सम्यग्दर्शन की शुद्धि-प्राप्ति कर सकते हैं। परमात्मा के वंदन से सम्यग्ज्ञान और पूजन-पूजा से निर्मल चारित्र प्राप्त कर सकते थे। 
खैर ! जो हुआ सो सही। महामंत्री बनुँगा तो भी मैं जिनालयों के सर्जन से जगत को पवित्रता का मार्ग दिखाऊँगा। 
पेथडशा अनन्य कोटि के प्रभु भक्त थे। आत्म प्रतिष्ठा नहीं सर्वत्र प्रभु प्रतिष्ठा के इच्छुक थे। परमात्मभक्ति दिखावा की नहीं थी, गलत आशय से नहीं थी, बिना उपयोग की नहीं थी। अंदर से उठती थी, प्रभु प्रेम से होती थी और एकाकार हो जाते थे। रत्नमंडन गणि ने पूरा चरित्र लिखा है।

धन्यकुमार चरित्र -16:
 शीलधर्म के पालन में भी एक महत्त्व का आशय है जीवदया। क्योंकि स्त्री संबंध के वक्त असंख्य दोइन्द्रिय जीवोंका, असंख्य समूर्च्छिम मनुष्यों का तथा दो लाख से नव लाख तक गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य की हिंसा बतायी है। अत: ब्रह्म व्रत पालन करने वाला इतने जीवों को अभयदान देता है।

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