कहा जाता है कि ग्रीस में कोई पीरहो नामका खुद को तत्त्वज्ञानी माननेवाला आभास तत्त्वचिंतक हुआ।
वह बोलने में चतुर था। उसने लोगों को उपदेश देना शुरु किया-जीवन यातना से भरा है। जीवन में कोई सार नहीं है। सभी पीडा से मुक्त होने मर जाना ही उचित है। देेह मुक्ति यानी सर्वदु:ख मुक्ति। सचोट द्रष्टांत देकर अपनी बात रखता था।
उसके प्रवचनों से प्रभावित होकर कोई दो-पांच हजारने आत्महत्या कर दी। मगर वह खुद 94 बरस (94 बरस) जिंदा रहा।
जब उनकी 90 साल की जन्मतिथि आयी, तब किसीने पूछा-अगर जीवन दु:ख रुप होने से मर जाना ही वाजिब है, तो आप इतने लंबे बरसों तक क्यों जिंदा रहे ?-
परिहोने जवाब दिया-मेरी बात ज्यादा लोगों तक पहुँचाने हेतु मैं जिंदा रहा हुँ। और लंबा जीना चाहुँगा।
खुद कष्ट झेलकर दुसरों को हितका मार्ग दिखाना तो सज्जनों का काम है!! शैतान भी सुभाषित बोल सकता है।
वैसे तो पूर्व भवोमें हमने पापकर्म ज्यादा किये हैं, पुण्यकर्म कम।
इस हकीकत को देखते हुए भगवान भी कहते हैं-यह जन्म दुखमय है-दुख खजाना है। अनुभव भी तो ऐसा है। प्रभुभी कहते हैं-देहमुक्त होता है। मगर अलग ढंग से।
प्रभु कहते हैं, इस जिंदगी फिजुल में फैंकने लायक नहीं है मगर आराधना-सुकृ तमय लंबा जीने जैसा है। और देह मुक्त होने का अर्थ है, देह की चिंता-ममता से मुक्त हो कर आत्मचिंता को ही महत्व देना है विवेक और अविवेक में इतना फर्क है।
धन्यकुमार चरित्र -19 :- उत्कृष्ट अभयदान और सुपात्रदान से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। लोगो में भी कहा जाता है कि-दिया दान कभी निष्फल नहीं जाता। सुपात्र में दिया दान विशिष्ट पुण्यमें हेतु बनता है। मानो कि उस सुपात्र के सभी गुण और सभी आराधना का अंद दान दाता को प्राप्त होता है। सुपात्रदान यानी सस्ते में श्रेष्ठ रत्नों की कमाई।
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