panchasar paswnath

 श्री पंचासरा पार्श्वनाथ- શ્રી પંચાસરા પાર્શ્વનાથ-

Panchasara Parshwanath

Panchasara Parshwanath
Panchasara Parshwanath

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प्रथम नजर मे  प्रतिमा के  दर्शन

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पाटण के श्री पंचासरा पार्श्वनाथ का भव्य अौर ऐतिहासिक जिनालय मे मूळनायक श्री पंचासरा पार्श्वनाथ श्वेत वर्ण की पद्मासन मे बिराजित प्रतिमाजी नयनों को  पुलकित करने वाली है । दर्शको के नयनो पर कामण करते यह अलौकिक प्रतिमाजी एक कलात्मक परिकर मे  सात मनोहर फणो से अलंकृित है ।यह प्राचीन अौर ऐतिहासिक प्रतिमाजी की ऊंचाई 45 ईंच अौर चौडाई 37 ईंच है । 


अतीत के इतिहास पर एक नज़र 

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नागेद्रगच्छ के जैनाचार्य श्री शीलगुणसूरि ने वनराज के ह्रदय मे शौर्य अौर संस्कार का पीयूषपान करवा कर  वीर बनाया था । बचपन की अवस्था मे वनराज को आश्रय देने वाले आचार्य भगवंत ने उसका पालन अौर घडतर किया था । चावडा वंश का बाहोश अौर शूरवीर राजपुत्र काल बितने पर राजकुमार बना । वल्लभीपुर अौर भिन्नमाल के पतन पश्चात 

इनके संस्कारो की पिढी संभाल सके एेसी तीर्थ भूमि की शोध करने वाले चावडा वंश के पराक्रमी राजा वनराज की दृष्टि अणहिल भरवाड ने सूचन किये हुए ‘लाखाराम ' गावँ की धरती पर पडी । सरस्वती नदी के निर्मळ जल से पावन बनी हुयी धरती के उपर वि.सं. 802 मे वैशाख सुद 3 को  सोमवार के दिन जैन मंत्रोच्चारो द्घारा पाटण नगर की स्थापना हुई । सफलता के दरवाजे पर खड़े कृतज्ञचूडामणि वनराज को संवयं की सफलता के मूळ मे बिराजमान जैनाचार्य श्री शीलगुणसूरि के उपकारो की स्मृति हुई । पूज्यपादश्री के चरणो मे उसने राज्य की समृद्धि सुपर्त कर दी । दुनिया की तुच्छ समृद्धि छोडी कर आत्मा के वैभव को पाने के लिए साधु बने हुए यह सूरि भगवंत सरल और निःस्पृह शिरोमणि थे । कृतज्ञता अौर निःस्पृहता का एक मीठा कलह उपस्थित हुआ । इस कलह के समाधान स्वरूप एक भव्य जिनालय का निर्माण पाटण की स्थापना के अल्प समय बाद हुआ । इस भव्य जिनालय मे तेविसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री पार्श्वनाथ की मनोहर जिनबिंब को पंचासर गाँव से लाकर प्रतिष्ठित करने मे आया । पंचासर वनराज के पिता जयशिखरी की राज्यभूमि थी  इसलिए वहाँ से लाये हुए श्री पार्श्वनाथ “श्री पंचासरा पार्श्वनाथ “ के नाम से प्रसिद्ध हुए । इस जिनालय मे वनराज की आराधक मूर्ति भी स्थापित की हुयी है । 

नौवी सदी के प्रारंभ मे निर्मित हुआ यह जिनालय गुजरात के प्राचीनतम जिनालयो मे से एक है । इस जिनप्रासाद के निर्माण के साथ पाटण मे मंदिर निर्माण प्रवृति की शुरूआत हुयी थी । वनराज के मंत्री निन्न ने पाटण मे ऋषभदेव प्रासाद बंधाव्या था ।वनराज , मूळराज , सिद्धराज अौर कुमारपाळ जेसे संस्कार प्रिय राजवी विमल , धवल , आनंद , पृथ्वीपाल , जांब , मुंजाल , सांतू , सज्जन , आदि धर्मप्रेमी मंत्रीओ ने अौर अनेक उदार श्रेष्ठीओ ने पाटण की भूमि को जिनालयो से विभूषित कर दिया था । पाटण की स्थापना से लगाकर चौदवी सदी के प्रारंभ तक तो सेंकडो जिनालयो से पाटण शुशोभित हो ऊठा था । वनराज ने बंधाया हुआ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ के जिन चैत्य “वनराज विहार “ के नाम से प्रचलित बना । तेरवी सदी मे आसाक मंत्री ने इस चैत्य का उद्धार करावया था । इस उद्धार कार्य की स्मृति मे उनके पुत्र अरिसिंह ने सं. 1301 मे अपने पिता की मूर्ति इस चैत्य मे स्थापित की थी । तेरवी शताब्दी के  प्रारंभ मे रचित हरिभद्रसूरि कृत चंद्रप्रभचरित्र की प्रशस्ति के उल्लेख अनुसार जयसिंह देव अौर कुमारपाळ के मंत्री पृथ्वीपाल ने अपने मातापिता के आत्म  श्रेयार्थ  श्री पंचासरा पार्श्वनाथ के जिन चैत्य मे मंडप की रचना करवायी थी । 

जैन मंत्री वस्तुपाल ने भी श्री पंचासरा पार्श्वनाथ के जिनप्रासाद का उद्धार करवाया था । श्री उदयप्रभसूरि कृत `धर्माभ्युदय ' महाकाव्य की प्रशस्ति के अनुसार नागेद्र गच्छ के श्री विजयसेनसूरि ने ‘वनराजविहार ' तीर्थ मे व्याख्यान देते थे । 

संपत्ति अौर समृद्धि से छलकते पाटण नगर को कर्ण वाघेला के राज्यकाल मे संवत 1353 से सं. 1356 के समय मे अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर के हाथो पतन हुआ । अनेक जिनालयो अौर महलो को धराशायी  कर दिया , गुलामी की जंजीरो मे गुजरात को बांध दिया गया । 

पतन से पायमाल पाटण एक या दो दशक मे फिर से बुलंदियो को छुने लगा था । अलाउद्दीन के आक्रमणन का भोग बना हुआ पाटण उसी की सीमा प्रदेश मे फिर से बसने लगा और कालातंर से पुनः एक समृद्ध नगर बनकर पहेले की तरह से अपनी ख्याति को ताजी बनाने मे समर्थ बना । 

‘वनराज विहार ' जिनप्रासाद पुराने पाटन मे था , वहाँ से जिन प्रतिमाओ को नये पाटण मे कब और कैसे लाने मे आयी इस विषय मे कोई आधारभूत माहिती प्राप्त नही मिल रही है । अंतिम जीर्णोद्धार पहले के मंदिर का  स्थापत्य सोळवी शताब्दी का जान पड़ता है । 

संवत 1613 मे श्री पंचासरा पार्श्वनाथना जिनप्रासाद मे  नौ जिनबिंब विद्यमान थे अौर , एक ही प्रांगन मे पांच जिनालय थे ।उसमे 83 प्रतिमाओ से युक्त एक श्री आदिनाथ प्रभु का भी जिनालय था । यह जिनालय आज विद्यमान नही है । सत्तरवी शताब्दी के मध्य भाग मे  भी यहाँ एक ही प्रांगण मे पांच जिनालय थे , अौर श्री पंचासरा पार्श्वनाथ के जिनालय मे कुल आठ जिनबिंब बिराजमान थे । 

तत्पश्चात ,यही प्रांगण मे  एक गुरुमंदिर का निर्माण हुआ । यह गुरु मंदिर `हीरविहार ' के नाम से पहचाना जाता था । संवत 1662 मे श्री हीरविजयसूरिनी अौर संवत 1664 मां श्री विजयसेनसूरि तथा श्री विजयदेवसूरि की मूर्तिओ को प्रतिष्ठित करने मे आयी थी । अंतिम जिनालय के जीर्णोद्धार का खात मुहूर्त संवत 1998 के फागण वद- 5 के शुभदिन करने मे आया था । अौर संवत 2011 के महा सुद- 6 के दिने परमात्मा के जिन बिंबो का जिनालय मे प्रवेश हुआ । संवत 2011 के जेठ सुद- 5 के दिने पू. आचार्य देव श्री समुद्रसूरिश्वरजी तथा पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज आदि की निश्रा मे यह नूतन जिनालय की भव्य महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा करवाने मे आयी थी । मुख्य मंदिर की भमती मे इक्यावन देवकुलिकआए है । देवकुलिकाओ का खात मुहूर्त सं 2013 के मागसर सु. 4 के दिने हुआ था ।यह देवकुलिकाओ का  सं. 2016 के जेठ सुद 6 के शुभ दिन जिनबिंबो की प्रतिष्ठा करने मे आयी और भव्य जिनालय के प्रवेशद्वार के पास के गोखलाओ मे दक्षिण दिशा के पहेले गोखले मे कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य की अर्वाचीन मूर्ति है । उसके सामने के उत्तर दिशा के गोखले मे आसाक मंत्री की प्राचीन मूर्ति है । दुसरे गोखले मे पार्श्वयक्ष की मूर्ति है । अौर उसके सामने के गोखले मे पद्मावती माता की मूर्ति है । तीसरे गोखले मे आचार्य श्री शीलगुण सूरिजी की अर्वाचीन मूर्ति है ।उसके सामने रे गोखले मे वनराज चावड़ा की प्राचीन मूर्ति है । देरीओ की शरूआत मे आगे के दो गोखलो मे सरस्वती की दो प्राचीन मूर्तिआ है । देरीओ के अंत मे आगे के दो गोखले मे दो क्षेत्रपाल की प्राचीन मूर्तिआ है । मंदिर के बाजु मे नये निर्माण किये गये गुरुमंदिर मे शीलगुणसूरि , उनके शिष्य श्री देवचंद्रसूरि , श्री हीरविजयसूरि , श्री सेनसूरीश्वरजी , श्री देवसूरीश्वरजी , श्री कान्तिविजयजी तथा श्री हंसविजयजी महाराज की मूर्तिओ को प्रतिष्ठित किया गया है । उपरांत इसी मंदिर के प्रांगण मे  श्री पार्श्वनाथजी का चौमुख जिनालय तथा श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ , श्री शांतिनाथ , श्री महावीर स्वामी , श्री धर्मनाथ , श्री सुपार्श्वनाथ , श्री नवखंडा पार्श्वनाथ आदि जिनालय दर्शनीय है । श्री पंचासरा पार्श्वनाथ जिनालय के गर्भगृह के मुख्य द्वार की शाखाओ अौर उत्तरंगो मे सोळ विद्यादेवीओ के स्वरूपो को नक्काशी से बनाया हुआ है । ऐसे ही आरस के सर्व द्वारो मे जैन प्रतिहारो के स्वरूप दिशा अनुसार कोतरनी काम करने मे आया है । द्वार के दरवाज़े रत्नजडित अौर कलात्मक है । ‘मंडोवर ' के नाम से जाने वाला मुख्य मंदिर के चारो ओर की दीवालो मे प्रत्येक घरो शिल्प कलाना भरपूर नकशीकाम वाले है उसमे तीर्थंकर भगवंतो के कल्याणक आदि जीवन प्रसंगो के द्रश्यो तथा देवांगनाओ , दिक्पालो , गंधर्वो , किन्नरो , यक्षो , आदि के मनोरम्य स्वरूपो को नक़्काशी कर बनाया है । यह मनोहर जिनप्रासाद जमीन के तल से 75 फूट ऊंचा है । अलोकिक भव्य देवकुलिकाओ से परिवृत्त हुए इस जिनप्रासाद देवविमान सदृश शोभायमान लग रहा है । 


भोजनशाळाओ , आयंबिल भुवन , ज्ञान भंडारो , पाठशाळाओ , विद्यामंदिरो , छात्रालयो आदि से शोभायमान यह नगर वर्तमान मे भी जैन धर्म के अनेक कल्याणकारी प्रवृत्तिओ से ख्याति से भरपुर है । 


पता 

श्री पंचासरा पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जैन देरासर ट्रस्ट 

हेमचंद्राचार्य रोड , पीपळानी शेरी , जि. महेसाणा , पाटण , पीन- 384265

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