jain story

 हे आदिनाथ ! मुझे अंतरात्म दशा की अनुभूति तक ले जाईए! 
 वैसे आज गुज. श्रावण वद सातम (राज. भादरवा वद सातम) है। 65 वे वर्षमें प्रवेश है। 
अहिंसा वगैरह छह व्रतों के बल पर कर्म आश्रवके पांच स्थान मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योग को जितना है ऐसा पूरा बरस मुझे याद रहे मेरा ऐसा ही प्रयत्न रहे तो जन्म और साधुजीवन मिला सार्थक होगा। इस आयुष्य को सार्थक करने जो अवसर मिला है, उस हेतु जो समय मिला है, प्रति समय कम होता जा रहा है। मुझे प्रति पल नया वर्जन पाना है। पूर्व क्षणका मैं जो था, उत्तरक्षण में मुझे उस मैं से विशिष्ट मैं होना है। विशिष्टता कैसे मिलेगी ? प्रमाद से ? नहीं कषाय में वृद्धि से ? नहीं। परिग्रह बढाते जाने से ? नहीं। बाह्य रिश्ते-नाते-नये-नये जोडने से ? नहीं। विशिष्टता मिलती है प्रभु वचन श्रद्धा-सम्यग्दर्शन की निर्मलता दृढता बढने से, पारिणामिक ज्ञान बढने से, चारित्र में अतिचार वगैरह कम होने से, उपशम भाव-समत्व, सर्वजीव एकात्मता अनुभूति से, खुद के परमात्मभाव की संवेदना तीव्र करते जाने से, अत एव जगत के वस्तु-व्यक्ति-प्रसंग वगैरह के प्रति औदासीन्य भाव में आगे बढने से। कभी कभार होता है ये शब्दों को फुल तो अच्छा सजाया, मगर स्वाद-अनुभूति-संवेदना की सुवास कहाँ है ? प्लास्टीक के फुल तो नहीं है ना ? श्रद्धा है, अनंत अरिहंतो के अनुग्रह से जन्म से पवित्र-दृढ धर्मी जैन कुल में जन्म मिला, अरिहंतो के अनुग्रह से और गुरुदेवों के आशीर्वाद से चारित्र धर्म मिला, तो उनके ही प्रभाव से आगे जो मार्ग तय हुआ होगा, वो मिलेगा ही। 
खुद के आत्म विकासमें मैं खुद अकिंचित्कर हूँ। कुँभार-दंड-चक्र क्रियात्वित हैं अत: मट्टी का पिंड घडा बनता है। हाँ, आप सभी की शुभेच्छा इस प्रक्रिया को वेग दे सकती है। 
आशा है, शुभेच्छा देंगे। 

*धन्यकुमार चरित्र -20* - जिसको दिया जाता है, वो आत्मशुद्धि-परमार्थ भाव की अपेक्षा से जितनी ऊँचाई पर पहुँचा है, इतना ही दान दाता को उनको देने से सुकृत कमाई होती है, बेशक श्रद्धाभाव, उमंग, निरपेक्षभाव अत्यावश्यक हैं। जिसको दिया उसकी ओर से साक्षात कोई भौतिक लाभ की अपेक्षा नहीं रखनी निरपेक्ष भाव है।

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