शालिभद्र
भाग -7
आचार्य भगवंत ने कहा- "भाग्यशाली ! जो पुण्यवंत आत्मा भागवती दीक्षा को स्वीकार कर उनका निरतिचार रूप से पालन करती है, वह समस्त जगत् के स्वामित्व को प्राप्त करती है, उसे किसी दूसरों की गुलामी नहीं करनी पड़ती है ।"
"प्रभो ! आपकी बात बिल्कुल ठीक है । मैं शीघ्र ही घर जाकर माता की अनुज्ञा प्राप्त कर चारित्र-धर्म स्वीकार करूंगा ।"
आचार्य भगवंत ने कहा- "शुभ कार्य में प्रमाद करना उचित नहीं है ।"
पुनः रथ में आरूढ़ होकर शालिभद्र अपने घर आ पहुँचा । उसने घर आकर माता से प्रार्थना की - "माताजी ! आप मुझे दीक्षा के लिए अनुमति प्रदान करें ।"
"बेटा ! दीक्षा के सिवाय आत्मकल्याण शक्य नहीं है, परंतु तू अत्यंत ही सुकोमल है । दीक्षा का पालन करना तेरे लिए लोहे के चने चबाने जैसा है । तू चारित्र के कष्टों को कैसे सहन कर पाएगा ।"
शालिभद्र ने कहा, "कायर के लिए कष्ट सहन करना कठिन है, शूरवीर के लिए नहीं ।"
"तो बेटा ! तू प्रतिदिन एक-एक स्त्री का त्याग करता जा और धीरे-धीरे त्याग को आत्मसात् करता जा । इस प्रकार के अभ्यास के बाद तू आराम से व्रत स्वीकार कर सकेगा ।"
माँ के वचन को स्वीकार कर शालिभद्र प्रतिदिन एक-एक स्त्री का त्याग करने लगा ।
इधर शालिभद्र के द्वारा एक-एक स्त्री के त्याग की बात को सुनकर धन्य ने सुभद्रा को कहा, "तेरा भाई तो कायर है कायर ।"
सुभद्रा ने कहा- "बोलना सरल है करना कठिन है ।" सुभद्रा के इस व्यंग्यात्मक वाग् बाण के साथ ही धन्यकुमार आठ स्त्रियों का त्याग कर चारित्र धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया ।
🤔 क्रमशः ....
लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.
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