Durgata Nari

जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....

दुर्गतानारी 
Mahvir swami Durgata Nari

जैन धर्म भावना का धर्म हैं । शुद्ध भाव से किया हुआ छोटा-सा अनुष्ठान भी कर्ममैल को नष्ट करता है । यह भावरसायण आत्मा को उन्नत बनाता है । किसी भी धर्मक्रिया के पीछे शुभ भाव हो , सुंदर अध्यवसाय अथवा उन्नत परिणाम हो , तो वह सफल रहता है ।

भगवान महावीर के समय में हुई दुर्गतानारी का चरित्र इसका जीवंत उदाहरण है । अत्यंत ही निर्धन दुर्गतानारी जंगल में जाकर लकड़ियाँ इकट्ठी करती थी । उनका गट्ठा बाँधकर लाती और नगर में बेचती थी । जंगल में जाती हुई दुर्गतानारी ने एक कौतुक देखा ।

उसने देखा कि काकंदीपुर नगर के उद्यान में भगवान महावीर पधारे हैं । उनके दर्शन के लिए आकाश में देवविमान में बैठकर देव उस ओर जाते थे । विद्याधर एवं किन्नर भी जाते थे । रथ में बैठकर राजा-महाराजा भी जाते थे । असंख्य नर-नारी पैदल चलकर काकंदीपुर के उद्यान में बिराजमान प्रभु महावीर का उपदेश सुनने के लिए जा रहे थे ।

भगवान महावीर की धर्मदेशना के लिए देवों ने समवसरण की रचना की थी । यह समवसरण याने एक अनुपम अवसर ! सुर , असुर या मानव सब कोई उस अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हो । इन्द्र अपने परिवार सहित उस स्थल पर आकर समवसरण की रचना करते हैं ।

वायुकुमार देवता उस भूमि पर से कूड़ा-करकट तथा कंटक दूर कर जायँ , मेघकुमार देव सुवासित जल का छिड़काव करके उस स्थल को सुगंधित करें । उस समय छः ऋतुओं के अधिष्ठायक देव पंचवर्णी पुष्पों की वृष्टि करें और व्यंतर ( एक भूतयोनी या उसका लोक ) देवता धरती से सवा कोस ऊँची सुवर्ण तथा रत्नों से शोभित ऊँची पीठ या स्थान बना दें । दस हजार सीढ़ियों ऊँचा चाँदी का गढ़ भुवनपति देवता निर्मित करते हैं । उस गढ़ पर समतल भूमि बनाते हैं । ज्योतिषी देवता पाँच हजार सीढ़ियोंवाले सुवर्ण गढ़ की रचना करते है ।

इस समवसरण में तीन गढ़ होते है । उस गढ़ के चार द्वार होते हैं । साथ ही उसमें सुंदर उपवनों , पवित्र चैत्यप्रासादों , ऊँचे लहराती हुई ध्वज-पताकाओं , पुष्पवाटिकाओं , अष्टमंगल और कलश आदि की सुशोभित रचना की जाती हैं ।

दुर्गतानारी को अपने शुभ पुण्यकर्म के योग से समवसरण में बिराजमान भगवान महावीर के दर्शन की और उनकी देशना सुनने की इच्छा जाग उठी । धन की समृद्धि के साथ धर्म की भावना का कोई नाता नहीं हैं ।धर्म का तो हृदय के सच्चे भाव के साथ सम्बन्ध है । दुर्गतानारी सोचने लगी कि प्रभुचरण में रख सकूँ ऐसा कुछ भी मेरे पास नहीं हैं । धन तो कहाँ से हो ? किन्तु कोई पुष्प भी नहीं है । भगवान की पूजा बिना पुष्प के कैसे करुँ ? किन्तु दुर्गतानारी का भगवान की पूजा का भाव प्रबल होने लगा । दूसरे फूल खरीद सके , ऐसी उसकी शक्ति न थी ।

उसने बंजर-वीरान भूमि पर ऊगते हुए आक या मंदार का फूल लिया । मन में प्रभु-पूजा का भाव धारण करके भगवान के समवसरण की ओर चलने लगी । यह अत्यधिक वृद्धनारी आधे रास्ते पहुँची वहीं उसके शरीर ने उसका साथ छोड़ दिया । लोगों ने माना कि यह वृद्धा थकान के कारण बेहोश होकर धरती पर गिर गई हैं । इससे उसके मुँह पर खूब पानी छिड़का , पर वृद्धा दुर्गता के प्राणपखेरु उड़ गये थे ।

समवसरण में प्रभु ने उस दरिद्र नारी की समृद्ध भावना की बात कही । उन्होंने कहा कि उस वृद्धा के हृदय में पूजा के प्रबल भाव थे । उसकी पूजा करने की भावना सफल नहीं हुई , पर अपनी भावतल्लीनता के कारण इस दरिद्र वृद्धा ने देवलोक में जन्म लिया । उस देव ने अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म को जाना और वे देववंदन के लिए यहाँ आये हैं ।

इस प्रकार कहकर भगवान महावीरस्वामी ने एक देव की ओर अंगुलिनिर्देश किया और कहा कि ये देव अपने आठवें जन्म में श्रमण धर्म का पालन करके शिव-पद प्राप्त करेंगे ।

इस तरह एक दरिद्र नारी की शुद्ध भावतल्लीनता ने उसके लिए मोक्ष के द्वार खोल दिये ।


साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा

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