Vrajswami Katha

श्रेष्ठ श्रमण श्री वज्रस्वामी

अवंति प्रदेशनी तुम्बवन नगरीना निवासी धनगिरि अने सुनंदानां लग्न तो थयां, किन्तु सुनंदा पतिनी आत्मकल्याणना साधनापथनी सुपेरे जाणती हती. सुनंदाने गर्भसूचक शुभस्वप्न आवतां धनगिरिए कह्युं के तने थोडा ज समयमां पुत्रनो आधार सांपडशे, तो हवे तारी अनुमति होय तो मारी दीक्षा लईने आत्मकल्याण साधवानी भावना छे. आदर्श आर्यनारीनी पेठे सुनंदाए धनगिरिने अनुमति आपी. सुनंदाए पुत्रने जन्म आप्यो. आ समये सुनंदानी सहियरो अने परिवारजनोए हर्षोल्लासभेर पुत्रजन्मनी उजवणी करी. आनंदना आ अवसरे कोईए एम कह्युं के जो आ बाळकना पिता धनगिरिए दीक्षा लीधी न होत अने अहीं हाजर होत, तो आ जन्मोत्सवनी उजवणी ओर दीपी ऊठत. 
आ वाक्यो नवजात शिशुना काने अथडातां ज एने पूर्वजन्मना संस्कारने लीधे जातिस्मरण ज्ञान थयुं. बाळके मनोमन विचार्य़ुं के माता वात्सल्यथी वींटाळी दे नहीं ते माटे एणे तत्काळ रडवानुं शरू कर्य़ुं. पूरा छ महिना सुधी रात-िदवसना एना रुदनथी माता सुनंदा हेरानपरेशान थई गई अने एक दिवस अकळाईने मुनि धनगिरिने आ सतत रडतो बाळक ज वहोरावी दीधो. बाळक मुनिने पधरावतां ज शांत थई गयो. मुनि धनगिरि गुरु आर्यसिंहगिरि पासे आव्या त्यारे गुरुए वजनदार गोचरी जोईने कह्युं के आ तो वज्र समान अत्यंत भारयुक्त छे. गुरुए खोलीने जोयुं तो एमांथी बाळक नीकळ्यो. गुरुए एनुं नाम `वज्र' राख्युं. आ बाळकनो साध्वीजी अने श्राविकाओ द्वारा उछेर थतो गयो. त्रणेक वर्ष बाद पुत्र प्रत्येनुं वात्सल्य पुनः जागृत थतां सुनंदाए पुत्रनी मागणी करी. वात छेक राजदरबार सुधी पहोंची. छेवटे नक्की थयुं के बाळक जेना प्रत्ये आकर्षित थाय तेनी पासे एने राखवो. सुनंदाए भातभातनां सुंदर रमकडां, मधुर स्वादिष्ट मीठाईओ अने हाथ लंबावीने वात्सल्यभरी चेष्टाओ द्वारा बाळकने पोतानी पासे बोलाव्यो, परंतु बाळक एक तसु पण हाल्यो-चाल्यो नहीं. ए पछी बाळकना पिता धनगिरिए पोतानुं रजोहरण उठावीने कह्युं के जो तुं तत्त्वने जाणनारो होय अने संयमने ग्रहण करवा माटे उत्सुक होय तो कर्मबंधनने फगावी देवा माटे आ रजोहरणनो स्वीकार कर. 
मुनि धनगिरिनुं वाक्य पूरुं थाय ए पहेलां बाळक वज्र पोताना स्थानथी फरीने एमना खोळामां बेसी गयो अने हाथमां रजोहरण लईने चामरनी माफक ढोळवा लाग्यो. साधुता अने सामर्थ्यनी पावन मूर्ति समा आचार्य वज्रस्वामी वीर नि. सं. 584 मां कालधर्म पाम्या. आवा महाना आचार्यना स्वर्गगमननी साथे ज दसमो पूर्व अने चतुर्थ संहनननो विच्छेद थई गयो. आवा आचार्यनी स्मृतिने चिरस्थायी बनाववा माटे एमना स्वर्गगमन पछी वजजीशाखानी स्थापना थई.

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